जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
|
201 पाठक हैं |
आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
उसका एक भावानुवाद देना चाहूँगा, शायद वह मेरी जैसी स्थिति में पड़े किसी और को कभी बल दे-
"अगर तुम अपना दिमाग ठीक रख सकते हो,
जबकि तुम्हारे चारों ओर सबके बे-ठीक हो रहे हों,
और दोषी इसके लिए वे तुम्हें ठहरा रहे हों,
अगर तुम अपने ऊपर विश्वास रख सकते हो,
जबकि सब लोग तुम पर सन्देह कर रहे हों,
पर साथ ही उनके सन्देह की अवज्ञा भी तुम न कर रहे हो,
अगर तुम नीके दिनों की प्रतीक्षा कर सकते हो,
और प्रतीक्षा करते-करते ऊबते न हो,
या जब सब लोग तुम्हें धोखा दे रहे हों,
पर तुम किसी को धोखा न देते हो,
या जब सब लोग तुम्हें घृणा कर रहे हों,
पर तुम किसी को घृणा न करते हो,
साथ ही न तुम्हें भले होने का अभिमान हो, न बुद्धिमान होने का,
अगर तुम सपने देख सकते हो पर
सपनों को अपने पर हावी न होने दो,
अगर तुम विचार कर सकते हो पर
विचारों में डूबे रहने को ही अपना लक्ष्य न बना बैठे हो,
अगर तुम विजय और पराजय दोनों का स्वागत कर सकते हो,
और दोनों में से कोई तुम्हारा सन्तुलन न बिगाड़ सकता हो,
अगर तुम अपने शब्दों को सुनना,
मूरों द्वारा तोड़े-मरोड़े जाने पर भी,
बर्दाश्त कर सकते हो,
और उनके कपट-जाल में नहीं फँसते हो,
या उन चीज़ों को ध्वस्त होते देखते हो,
जिनको बनाने में तुमने अपना सारा जीवन लगा दिया था,
और अपने थके हाथों से उन्हें फिर से बनाने को उद्यत होते हो,
अगर तुम अपनी सारी उपलब्धियों का
एक अम्बार खड़ा कर उसे एक दाँव पर
लगाने का खतरा उठा सकते हो-हार होय कै जीत,
और सब कुछ गँवा देने पर
अपनी हानि के विषय में एक शब्द भी
मुँह से न निकालते हुए,
उसे कण-कण पुनः प्राप्त करने के लिए सन्नद्ध हो जाते हो,
अगर तुम अपने दिल, अपने दिमाग और अपने पुट्ठों को
फिर भी कर्म-नियोजित होने को बाध्य कर सकते हो
जबकि वे पूरी तरह थक-टूट चुके हों,
जबकि तुम्हारे अन्दर कुछ भी साबुत न बचा हो
सिवा तुम्हारे इच्छा-बल के,
जो उनसे कह सके, तुम्हें पीछे नहीं हटना है,
अगर तुम भीड़ में घूम-फिर सको
मगर अपने गुणों को भीड़ में न खो जाने दो,
और सम्राटों के साथ उठो-बैठो
मगर जन-साधारण का सम्पर्क न छोड़ो,
अगर तुम्हें प्रेम करने वाले मित्र और घृणा करने वाले शत्रु,
दोनों ही तुम्हें चोट न पहुँचा सकते हों,
अगर तुम सब लोगों का लिहाज़ रखो,
लेकिन एक सीमा के बाहर किसी का भी नहीं,
अगर तुम क्षमाहीन काल के एक-एक पल का हिसाब दे सको,
तो यह सारी पृथ्वी तुम्हारी है और
हर एक वस्तु जो इस पर है;
साथ ही, वत्स, तुम सच्चे अर्थों में इन्सान कहे जाओगे,
जो उससे भी बड़ी उपलब्धि है।"
|