जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
सुबह होने को थी पर न तेजी की आँखों में नींद थी, न मेरी आँखों में-'न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ मगर यामिनी बीच में ढल रही है'- उस रात को एक उम्र ही जैसे ढल गयी थी। मैं तो दिन में ट्रेन में सो लिया था, और तेजी ने रातों को जागने की आदत डाल ली थी। जब से उनको बच्चों को गायब करा देने की धमकी से भरे गुमनाम पत्र आये थे, तब से वे दिन को थोड़ा बहुत सो लेती और रात-रात जागती रही, सिरहाने एक बिजली का लैम्प जलता रहता और वे कोई उपन्यास पढ़ती रात काट देंती, अपने बच्चों पर पहरा भी देती-इलाहाबाद में तो छह महीने हम बाहर खुले में या बरामदे में सोते थे-किसी चौकन्नी शेरनी के समान। वे कहीं भी कमज़ोर हों, उनके बच्चों पर कोई आँख उठाये तो वे सिंहनी बनकर उस पर टूटेंगी। महीनों दिन-सोने, रात-जागने के विपर्यय की थकान और तनाव उनके शरीर पर भी था,मनोशिराओं पर भी। उनका स्वास्थ्य बस टूटने-टूटने को हो रहा था।
और तेजी को परेशान करने में बाहर के बदमाशों ने जो कोर-कसर छोड़ी थी, वह साथ के किरायेदारों ने पूरी कर दी थी, विशेषकर उन्होंने जो हमारे हिस्से के ठीक ऊपर के हिस्से में रहते थे-पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी बड़े ज़मींदार के साहबजादे, जो कई सालों से युनिवर्सिटी में लॉ पढ़ रहे थे। किसी साल हाज़िरी पूरी न होने से उन्हें इम्तहान में बैठने की इजाज़त न मिलती, किसी साल वे खुद ही ड्राप कर जाते और किसी साल बेफिकरी से फेल हो जाते, और इस प्रकार अपनी पढ़ाई को शहर में रहने का एक बहाना बनाये रहते। वे और उनके गँवर भुच्च नौकर अपनी देहकानी हरकतों से हमें हर समय परेशान रखते थे। फिर भी मेरे युनिवर्सिटी में होने के कारण उनकी अचगरी कहीं एक सीमा मानती। मेरी अनुपस्थिति में उन्होंने तेजी को अपनी वहशियाना आदतों से बहुत हलाकान किया। आदमी ऐसी छोटी-छोटी, गो दिमाग को उलझन में डालने वाली, झंझट-बखेड़ा खड़ा करने वाली, सुरुचि पर आघात करने वाली और शान्तिकामी, क्रमबद्ध जीवन में खलल पहुँचाने वाली बातों के लिए थाना-कचहरी तो नहीं दौड़ता। पंजाबी में एक कहावत है, घर और कबर अकेली ही भली।
तेजी तो, जिसे कहते हैं, एकदम नर्वस ब्रेकडाउन की हालत में थीं। उन्होंने अपने ऊपर बहुत भार ले लिया था, और इसके लिए अपराधी मैं कम नहीं था। उस भार का दबाव अब अपनी सीमा पार कर चुका था और आवश्यकता इस बात की थी कि तुरन्त उनके भार को हल्का कर उन्हें कुछ राहत, आराम, विश्रान्ति दी जाय। अन्यथा किसी अनिष्ट के लिए मुझे तैयार होना पड़ेगा।
नर्वस ब्रेकडाउन की हालत तो मेरी न थी, पर पिछले दो वर्षों में जो श्रम मैंने किया था और जिन शारीरिक और मानसिक तनावों में होकर निकला था, उनसे मैं कम थका-टूटा नहीं था। और घर लौटकर जो मैंने देखा और पाया था, उससे अगर मैं न टूटा होता तो भी टूट जाना था। और मेरी सबसे बड़ी व्यथा तो यह थी कि अपनी सब प्रकार की थकन-टूटन में जिसका मुझे सबसे अधिक सहारा था, वह स्वयं टूट रहा था।
ऐसे समय मेरा ध्यान किपलिंग की प्रसिद्ध कविता If की ओर गया और उससे मैंने बड़ा बल संचय किया। पढ़ तो उसे मैंने बहुत पहले रखा था, पर शायद उसे समझने का उपयुक्त अवसर अब आया था, उससे प्रेरित होने का और उस पर चलने का भी। अब उसे पढ़ता तो मुझे ऐसा लगता जैसे वह मेरी ही सारी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लिखी गयी हो। बड़ी कविताएँ अपने को पूरी तरह व्यक्त करने के लिए जीवन के गहन अनुभवों की प्रतीक्षा करती रहती हैं।
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