जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
|
201 पाठक हैं |
आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
कल तक तुमने कुछ भी सोचा हो, सहा हो, पर आज तो मैं आ गया हूँ, और मेरा आना ऐसा कुछ बेमानी तो नहीं है। मैं सब कुछ सँभाल लूँगा, तुम कुछ समय के लिए अपने को एकदम ढीला छोड़ दो, तन को भी विश्राम दो, मन को भी, दिल को भी, दिमाग को भी। घर का प्रबन्ध भी मेरे हाथों में छोड़ दो, नौकरों को भी, बच्चों को भी, मोटर को भी-देखो, मैं कितनी किफायत से घर चलाता हूँ। तुमसे हाथ नहीं खिंच सकेगा, मैं ज़्यादा बढ़ाऊँगा ही नहीं, हमें कुछ बचाना भी पड़ेगा, सबसे पहले बच्चों की शिक्षा वाली राशि पूरी करनी है-पाई-पाई-इसके बिना मुझे चैन नहीं, फिर तुम्हारे बदन पर तुम्हारे गहने वापस लाने हैं-इन सब के ऊपर कुछ जोड़ना-बटोरना भी होगा, कभी किसी आपात स्थिति के लिए, जो जीवन में अक्सर अचानक उठ खड़ी होती है-किसी अघटित-घटित में हमारे बच्चों के पाँवों के नीचे धरातल इतना अस्थिर-अनिश्चित न रहे कि वे अपने को असहाय पायें। अपने दो बेटों, एक भतीजे को विकास के पथ पर हमें लगा देना है। लक्ष्य प्राप्त हो, न हो, लक्ष्य पर पहुँचना अपने ही हाथों में नहीं होता, पर लक्ष्य बनाकर ही चला जाता है। यह कम सौभाग्य की बात नहीं है कि हमारे सामने लक्ष्य है। वह आकर्षक हैप्रेरक भी। जब तक मैं अपनी पूरी शक्ति, सामर्थ्य नहीं लगा देता, तब तक मैं दैव, नक्षत्र, नियति को दोष नहीं देता। अव्यवस्था को व्यवस्था देना ही कला है। कलाकार तुम भी हो, मैं भी हूँ। आज अव्यवस्था ने हमें चुनौती दी है। मैं अपने कलाकार का सबसे बड़ा और पहला क्षेत्र जीवन मानता हूँ। शब्दों के क्षेत्र में सफल होकर जीवन में असफल हो जाऊँ तो मैं अपने कलाकार को असफल ही मानूँगा। कलाकार की सफलता बाहर से ही देखने की चीज़ नहीं है। सफल हूँगा तो उसका संकेत मेरे मन की 'हारमनी' देगी, शान्ति देगी। अभी मैं विक्षुब्ध हूँ। पर 'हारमनी' लाने-पाने की खोज मेरी आज से ही शुरू होगी...अभी से...'
सुबह मैंने यात्रा में साथ लाये पैसे से राशन तो मँगा दिया था, पर जब-जब मुझे यह खयाल आता था कि अगर मुझे दो-चार दिन की देर हो जाती तो? तब मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे ही रह जाती थी।
मुझे याद आता, ईट्स की प्रेयसी माडगान ने कहीं लिखा था कि जब स्वाधीनता-संग्राम के दरमियान आयरलैण्ड में अकाल पड़ा तो आयरी किसान अपनी दीनता प्रदर्शित करने को बाहर न निकले, उन्होंने अपने दरवाज़ों पर कीलें मार दी और मुँह में कपड़ा भरकर बिस्तरों में जाकर लेट गये।
तेजी में इतना स्वाभिमान है, इतनी आन है-सोडी सिक्खों के परिवार में पैदा होने के कारण कुछ प्रबल संस्कार तो वे लायी ही हैं कि किसी के सामने हाथ फैलाने की नौबत आने पर कुछ उसी प्रकार का उग्र निर्णय लेने को वे तैयार हो जार्ती...
नियति के किसी क्षेमकर विधान से मैं ठीक उसी दिन आ गया था जिस दिन मुझे आना था।
और मेरे आने के साथ ही, इलाहबादी कायरों की धमकी-भरी बंदे-खुदाई चिट्ठियाँ और अश्लील लांछनों से पूर्ण गुमनामी पत्र गायब हो गये थे।
कहाँ चले गये थे वे सब गोबरी गुण्डे और शैकिया सूरमा जो महीनों से टट्टी की आड़ में खड़े हुए अपने कलम भाँजा करते थे?
और कहाँ चले गये थे इलाहाबादी कौए और गीदड़ जो तेजी के, राजन के और मेरे बारे में कुछ सुनी, कुछ गढ़ी अफवाहों और कुछ कुरुचिवश, कुछ ईर्ष्या-द्वेष के कारण, कुछ बिल्कुल अकारण हम पर मढ़े आरोपों को शहर की गली-सड़कों पर, चाय-कॉफीखानों में पान-बीड़ी की दुकानों पर और अपनी गप्प-गपोड़ीगोष्ठियों में कोंकोआते और हुहुआते फिरते थे?
क्यों यह शहर का शहर हमारा दुश्मन हो गया था?
हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता थी कि तुरन्त कहीं से कुछ पैसे मिलें।
|