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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


10 जुलाई को युनिवर्सिटी खुल गयी। और कायदे से मुझे दो महीने की गरमी की छुट्टियों की तनख्वाह के रूप में 1000/=मिल गये। मुझे खेद के साथ लिखना पड़ता है कि इलाहाबाद युनिवर्सिटी में भी मेरे प्रति यदि विरोध का नहीं तो असहानुभूति और उपेक्षा का वातावरण था। स्वयं मेरे विभागाध्यक्ष यह नहीं चाहते थे कि गरमियों की छुट्टी की तनख्वाह मुझे मिले, इसे वे उस व्यक्ति को दिलाना चाहते थे, जिसने मेरी अनुपस्थिति में अस्थायी रूप से काम किया था। यह बड़ी आसानी से हो जाता अगर मैं उसी दिन युनिवर्सिटी न ज्वाइन करता, जिस दिन युनिवर्सिटी खुली थी। केम्ब्रिज छोड़ने के पहले विभागाध्यक्ष ने जो पत्र मुझे लिखा था-वह पत्र अभी तक मेरे पास रखा है-उसमें चार स्थानों पर लिखा था कि युनिवर्सिटी 13 जुलाई को खुल रही है, कि किसी तरह यदि मैं 10 को न पहुँचूँ तो उनकी मंशा पूरी हो जाये। उन्होंने पहले भी जो किया था और आगे भी जो किया, उससे ऐसा भोला-भोला षड्यन्त्र उनसे बईद न था।

उस वर्ष अंग्रेजी विभाग में एक अतिरिक्त रीडर की नियक्ति होने वाली थी। मुझे इलाहाबाद लौटने पर पता चला था कि वह पद मेरे वापस आने के पूर्व दफ्तरी वरिष्ठता के आधार पर भर दिया गया था। जब वाइस चांसलर, विभागाध्यक्ष, पदार्थी (पद+अर्थी) एक ही जाति के हों, तब परम्परागत वरिष्ठता की आड़ लेकर भाई-भतीजावादी मनोवृत्ति को सन्तुष्ट कर लेना कितना आसान हो सकता था ! क्या रीडर की नियुक्ति में जल्दबाज़ी इसलिए नहीं की गयी थी कि केम्ब्रिज से डिग्री लेकर वापस आने पर निश्चय मैं उनका एक सबल प्रतिद्वन्द्वी सिद्ध हूँगा? और क्या कभी-कभी वरिष्ठता की परम्परा के अपवाद के उदाहरण भी युनिवर्सिटी के इतिहास में नहीं मौजूद थे?

इतना ही नहीं, वे आगे भी पदोन्नति के 'क्यू' में लगे लोगों के हित में, जिनमें उनका अपना सगा भाई भी था, मेरा युनिवर्सिटी में रहना ठीक नहीं समझते थे। वे मेरी बड़ी प्रशंसा करते, 'तुम इतनी बड़ी युनिवर्सिटी से इतनी बड़ी डिग्री लाये हो, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी से डॉक्टरेट लेने वाले तुम दूसरे भारतीय हो, पर कितनी विडम्बना है कि यहाँ वरिष्ठता की परम्परा चलती है, और हम तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर सकते।' (दुर्भाग्यवश, वे स्वयं वरिष्ठता की परम्परा से ही अपनी कुर्सी पर बैठे थे और चाहते थे ऐसा दुर्भाग्य सबके भाग्य में आये।) वे मेरे सामने सुझाव रखते, 'अगर किसी युनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष की जगह खाली हो तो तुम्हें फौरन मिल सकती है।' इसके लिए वे पूरी तरह मेरी सिफारिश करने को भी तैयार थे। शायद उन्हें नहीं मालूम था कि केम्ब्रिज की डिग्री अपने आप में इतनी बड़ी है कि वह किसी की सिफारिश की मुहताज नहीं रहती। पर विभागाध्यक्ष अपनी महत्ता और प्रभाव के प्रति अचेत कैसे रहे! विभाग से मुझे हटाने का उनका सूक्ष्म षड्यन्त्र देखते हुए भी मैं उनके प्रति बाहर से कृतज्ञता दिखलाता।

मन से मैं इलाहाबाद छोड़ना नहीं चाहता था। पीढ़ियों से इलाहाबाद मेरी मातृभूमि-पितृभूमि थी। इलाहाबाद युनिवर्सिटी के प्रति भी मेरा कम लगाव नहीं था। जिस युनिवर्सिटी का मैं विद्यार्थी था, उसी युनिवर्सिटी में मैं अध्यापक हूँ, इस पर मुझे गर्व ही नहीं था, इसका मेरे लिए एक भावात्मक मूल्य था। यह संस्था एक कड़ी थी जो मुझे मेरे प्रारम्भिक यौवन के श्रम-संघर्ष के दिनों के साथ मेरे वर्तमान जीवन के कतिपय सुख-सुविधाजनक दिनों को जोड़ती थी। नियति के किसी विधान से मेरी गिरावट का थदन फिर लौट आया था, और मैं इसी ज़मीन पर एक बार फिर उठने का स्वप्न देखता था। युनिवर्सिटी के साथ मेरा और एक विशिष्ट सम्बन्ध था, जिसके प्रति मैं सचेत भी था और जिसका किसी अर्थ में अभिमानी भी। ऐसे लोग युनिवर्सिटी भर में इने-गिने थे, अंग्रेज़ी विभाग में तो कोई भी और न था। कोई कानपुर का था, कोई गोरखपुर का, कोई देहरादून का तो कोई लखीमपुर का, कोई झाँसी का तो कोई फर्रुखाबाद का, कोई बम्बई का तो कोई बारीसाल का, या और कहीं-कहीं का-सब 'स्यूडो इलाहाबादी'। मैं खानदानी इलाहबादी होकर इलाहाबाद युनिवर्सिटी का था, जिसकी सात पीढ़ियाँ यहीं की मिट्टी में जन्म, पल, बढ़, इसी की मिट्टी में विलीन हो गयी थीं। मेरे दोनों लड़के भी यहीं जन्मे और इसी की माटी में खेले थे और मेरा अरमान था कि उन्हें यहीं के संस्कार मिलें। इसकी मिट्टी, इसके हवा-पानी, इसकी परम्परा, इसकी शिक्षा-संस्था, सबसे बड़ी शिक्षा-संस्था से मेरी जो रक्त की आत्मीयता थी, उसे विभागाध्यक्ष समझ ही नहीं सकते थे। उनकी बातों को सुनकर मैं सोचता, क्या जो मेरा मातृविद्यालय (आलमा मेटर) है, वह अपने एक योग्य बेटे को अपनी गोद में शरण देने को तैयार नहीं है? क्या मैं यहीं रहकर अपनी रोजी-रोटी नहीं कमा सकता? क्या यहीं रहते हुए मेरी उन्नति-पदोन्नति का द्वार नहीं खुल सकता? केम्ब्रिज में बैठे हुए भी मैं अपने इलाहाबाद को नहीं भूला था, याद किया था, लिखा था, 'लिखता हूँ अपनी लय-भाषा सीख इलाहाबाद नगर से।'

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