जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
और वही इलाहाबाद मेरी अवहेलना कर रहा था, मुझे बहिया देना चाहता था; क्योंकि कुछ अयोग्यों को मेरी योग्यता सह्य न थी।
मैं जिस दिन से लौटकर आया था, उस दिन से विभाग कदम-कदम पर मुझे महसूस करा देना चाहता था कि तुम यहाँ वांछित नहीं हो।
मुझे नहीं याद कि केम्ब्रिज से मेरे डॉक्टरेट लेने पर किसी ने खुलकर मुझे बधाई भी दी हो, सिवा डाक्टर दस्तूर के, जो अपनी नयी पत्नी के साथ मेरे घर आकर मुझसे मिले थे, और मुझे मुबारकबाद दी थी।
विलायत की एक बहुत गलत तस्वीर अपने मन में बसाये मेरे बहुत-से सहयोगियों को पहली मुलाकात पर सिर्फ यही कहने को था, 'खूब मजे किये होंगे।' मेरे पूर्व मेरे विभाग के एक नवयुवक सहयोगी श्री इकबाल अहमद 9 महीने के लिए इंग्लैण्ड गये थे और योरोपीय नाच सीखकर लौट आये थे, साथ आये थे सरपेंटाइनलेक, हाइड पार्क और सोहो की सस्ती रात-बालाओं से अपने प्रेमाभिसार के जूसी किस्से जिन्हें हमारे यौन-बुभुक्षित साथी लोग मुँह बा-बाकर सुना करते थे; जैसे उनके वर्णन से भी दो-चार बूंदें उनके मुख में टपक पड़ेंगी। इकबाल साहब अब पाकिस्तान चले गये थे, पर अपने किस्सों की प्रतिध्वनियाँ यहीं छोड़ गये थे।
स्कालर कहलाते हैं ! पर किसी ने मेरे काम के प्रति कुछ भी जिज्ञासा नहीं प्रकट की। मेरी थीसिस ही एक नज़र देखना चाहते।
मैं चाहता था कि युनिवर्सिटी मेरी थीसिस ही प्रकाशित करा दे। मैंने भारत सरकार के शिक्षा मन्त्रालय से प्रार्थना कर प्रकाशन का आधा खर्च देने के लिए उसे तैयार कर लिया था बशर्ते कि युनिवर्सिटी आधा खर्च देने को तैयार हो। युनिवर्सिटी नहीं तैयार हुई। विभागाध्यक्षों ने मुझसे कहा था, 'अभी तो हमारे यहाँ ही प्रस्तुत की गयी थीसिसे अप्रकाशित पड़ी हैं, हम केम्ब्रिज युनिवर्सिटी की थीसिस कैसे प्रकाशित करें।' काश, वे प्रकाशित हो जाती तो इतना तो पता चलता कि इलाहाबाद युनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी शोध का स्तर क्या है!
युनिवर्सिटी से एक अंग्रेज़ी की पत्रिका निकलती थी। सम्पादक हमारे ही विभाग के थे। उन्होंने साल-भर में एक बार भी मुझसे न कहा कि मैं उनकी पत्रिका में केम्ब्रिज में युनिवर्सिटी-जीवन या ईट्स से सम्बन्धित किसी विषय पर कुछ लिखूँ।
युनिवर्सिटी में एक्स्ट्रा म्यूरल व्याख्यान होते हैं। मुझसे कभी प्रार्थना न की गयी कि केम्ब्रिज युनिवर्सिटी के विषय में या ईट्स-साहित्य के किसी पक्ष पर कोई व्याख्यान दूँ। 'भारत और ईट्स' पर एक व्याख्यान देने के लिए मुझे नगर के रोटरी क्लब ने निमन्त्रित किया। मुझे नहीं याद कि मेरे सहयोगियों में से कोई उस व्याख्यान में उपस्थित हो।
और तो और, जब मैं इंग्लैण्ड जाने लगा था, तब विभाग की ओर से मुझे चाय-पार्टी दी गयी थी। जब मैं लौटा, तब? मुझे याद आया केम्ब्रिज के कितने कॉलेजों ने, मुझे निमन्त्रित कर अपने यहाँ के हाई टेबल पर मुझे मुख्य अतिथि का सम्मान दिया था।
कहने की सीमा होती है
सहने की सीमा होती है
कुछ मेरे भी वश में मेरा कुछ सोच समझ अपमान करो।
और अपमानित कर रहे थे मुझे विभागाध्यक्ष और मेरे सहयोगी, मेरी उपेक्षा करके। हम तुम्हारी डिग्री को कोई महत्त्व नहीं देते। उसकी कोई परवाह नहीं करते। केम्ब्रिज से डिग्री ले आये तो कौन बड़ी लाट खड़ी कर दी। शायद उन्होंने मुझे 'डॉक्टर बच्चन' कहकर सम्बोधित करने में भी अपनी हीनता समझी। उनके लिए मैं बच्चनजी था, बच्चनजी बना रहा-हिन्दी का कवि!
देखत ही हर्षे नहीं नयनन नहीं सनेह
तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसे मेह।
ये सारी बात, न चाहते हुए भी, मुझे भीतर से कहीं तैयार कर रही थीं कि अवसर मिले तो मैं इलाहाबाद से हट जाऊँ।
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