जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
जुलाई में ही पण्डित जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद आये साल में दो-तीन चक्कर उनके इधर लगते थे। वे जब आते, आनन्द-भवन पर एक नयी आभा छा जाती। भीतर-बाहर चारों ओर सफाई होती, रात को कमरे-कमरे में रोशनी, मिलने वालों का तांता लग जाता-मोटर, ताँगों, रिक्शों, इक्कों से आनन्द-भवन घिर जाता–‘एक प्रविसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार'- भूप-से वे थे ही, देश के भी, देशवासियों के दिलों में भी। सामने से आने-जाने वालों को भी पता लग जाता, पण्डितजी आ गये हैं। उनमें कुछ ऐसा आकर्षक और उत्प्रेरक था कि उनके आते ही नगर-भर कुछ अज्ञात उल्लास का अनुभव करता।
मैंने केम्ब्रिज से अपनी सफलता की सूचना उन्हें दे दी थी। उन्होंने पूरी नहीं तो एक बहुत बड़ी सहायता तो दी ही थी। सूचना देने के पीछे मेरा एक ध्येय यह भी था कि उन्हें जता दें कि जो सहायता उन्होंने दी थी वह मैंने व्यर्थ नहीं की थीजिसकी आशंका उनको बीच में हो गयी थी-उसको मैंने किसी अर्थ में सुफल किया, उसका कुछ अच्छा उपयोग किया, जिससे उनको भी कुछ सन्तोष हो सकता था। स्वदेश लौटने पर मैं दिल्ली जाकर उनकी पूर्व आशंका को निर्मूल करना चाहता था, जिसके लिए अपने शोध कार्य में सफलता पा, मैं अधिक अनुकूल स्थिति में था। लेकिन लौटने पर जो आर्थिक कठिनाइयाँ मेरे सामने आ खड़ी हुई थी, उनके कारण ऐसा सम्भव न हो सका, और मैं अपनी इच्छा को दबा गया था। अब वे स्वयं इलाहाबाद आ गये थे।
मुझे यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि वे मुझे भूले न थे, और एक शाम उन्होंने तेजी को और मुझे खाने पर बुला लिया था।
पण्डितजी का दर्शन सदा सुखद होता था-वही परिचित, प्रत्याशित, अपरिवर्तनशील पोशाक-मुद्रा--दिल्ली के औपचारिक दफ्तरी हाँ-हुजूरी के वातावरण से दूर अधिक स्वाभाविक लगती-सी, वे अधिक सहज-प्राप्य लगते-से।
हम लोग पहुँचे तो हमें देखते ही वे आगे बढ़े और एक हाथ तेजी के कन्धे पर रखकर और एक मेरे, उन्होंने अपने से चिपका लिया, एक बार तेजी की ओर देखकर मुसकराये, एक बार मेरी ओर-वे अपनी दृष्टि, अपनी मुसकान में कितना अर्थ भर सकते थे!
केम्ब्रिज में उनकी बेरुखी का परिहार हो गया।
वे कुछ न बोले पर मुझे लगा कि उन्होंने मेरी सफलता पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की, मुझे बधाई दी, साथ ही तेजी को भी बधाई दी, जैसे कह रहे हों कि बिना उनके सहयोग के, जो काम मैंने किया, वह सम्भव नहीं था, शायद अपनी मुद्रा से अधिक श्रेय उन्होंने तेजी को ही दिया। नारी के प्रति वे सहज उदार थे-और उनकी मुसकान में यह भी था कि तुम लोगों के बारे में मेरे पास तो और ही कहानियाँ पहुँचायी गयी थीं, पर अब मुझे मालूम हो गया है कि वे सब झूठी थीं। मैंने मनही-मन याद किया, केम्ब्रिज में मैंने उनसे कहा था, 'सच्चाई किसी दिन खुलेगी।'
खाने की मेज़ पर इने-गिने लोग ही थे-डा० सामंत (कमला नेहरू अस्पताल की), श्याम कुमारी खान और उनके पतिदेव श्री जमील अहमद खान और हम पति-पत्नी। हमें पण्डितजी ने अपने दायें-बायें बिठलाया। आमों का मौसम थाउन्होंने खाने के बाद हमें खुद काट-काटकर आम खिलाये–'केम्ब्रिज में तो मिला नहीं होगा।' मेज़ पर ही केम्ब्रिज की बातंर हुई-वे स्वयं केम्ब्रिज के स्नातक थे, वहाँ के मानद डॉक्टरेट प्राप्त भी। मुझे लगा, जैसे वे अपने-मेरे सम्बन्ध में केम्ब्रिज की एक और कड़ी जुड़ी पाकर प्रसन्न हैं।
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