जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
उन्होंने मेरे शोध-कार्य के विषय में पूछा। ईट्स की कविता और फिलासफी पर थियोसोफी के भी प्रभाव का विवेचन मैंने किया था, और एक समय थियोसोफी आन्दोलन में नेहरू परिवार ने पर्याप्त रुचि ली थी। मोतीलालजी थियोसोफिकल सोसायटी के सर्वप्रथम सदस्यों में थे, जवाहरलालजी भी कई वर्ष तक उसके सदस्य थे-उन्हें दीक्षा मिसेज़ ऐनी बीसेंट ने दी थी, जो आन्दोलन की प्रवर्तिका मादाम ब्लावाट्स्की की निकटतम शिष्या थीं, उनके लड़कपन के गृह-शिक्षक एफ० टी० ब्रुक्स अच्छे और उत्साही थियोसोफिस्ट थे। 'आत्मचरित' में स्वयं उन्होंने अपने विकास में थियोसोफी के योगदान को स्वीकार किया है और उसके प्रति अपने को ऋणी माना है। जब मैं थियोसोफी की बातें कर रहा था, मैंने देखा, पण्डितजी जैसे बगल के पुराने 'आनन्द भवन' (अब स्वराज भवन) में, अपने लड़कपन के दिनों में चले गये हों, और उनकी आँखों के सामने से उनके मास्टर, ऐनी बीसेन्ट, मादाम ब्लावाट्स्की, आनन्द भवन में ही थियोसोफी पर आयोजित साप्ताहिक बैठकें , थियोसोफी की अद्भुत मान्यताएँ स्मृति-चित्रों की भाँति गुज़र रही हों। मेरे कार्य में उन्होंने रुचि दिखाई, कभी मेरी थीसिस पढ़ने की इच्छा भी प्रकट की। मैं जानता था कि उनके व्यस्तातिव्यस्त जीवन में मेरी थीसिस पढ़ने को समय कहाँ मिलेगा, पर उनके इतना कहने से भी मैं गद्गद् हो गया। युनिवर्सिटी के मेरे सहयोगियों ने मेरी उपलब्धि के प्रति जो उदासीनता और मेरे कार्य के प्रति जो उपेक्षा प्रदर्शित कर मुझे क्षत-विक्षत किया था, पण्डितजी की सहृदयता ने जैसे उस पर मरहम लगा दिया।
उन्होंने मेरे वेतन आदि के बारे में चर्चा चलाई थी। वे चाहते थे कि शिक्षण-क्षेत्र में रहते हुए मेरी पदोन्नति हो। जजों के भोज में एक बार जाने पर उन्होंने युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर बी० एन० झा को अपने पास पाकर मेरी प्रशंसा उनसे अतिशयोक्तियों में की थी- यह मुझे झा महोदय ने स्वयं बताया था। यह मेरी अनुशंसा करने का उनका तरीका था कि इससे प्रभावित हो, शायद, अधिकारी मुझे आगे बढ़ने का अवसर दें। पर एकमात्र पद, जिस पर मुझे अधिकारपर्वक बिठलाया जा सकता था, उसके बारे में फैसला पक्षपातपूर्ण ढंग से हो चुका था।
दिल्ली में बैठे हुए भी, वे मेरे बारे में सोचा करते थे, मेरी योग्यता-क्षमता के अनुरूप किसी अच्छे काम में मुझे लगाना चाहते थे, इसकी भी खबर मुझे मिली थी। पण्डितजी की आदत थी कि जब किसी मीटिंग वगैरह में बैठते तो किन्हीं भावों-विचारों को वे किसी-न-किसी रूप में चित्रित किया करते थे- पेंसिल से। इसे अंग्रेज़ी में 'डूडलिंग' कहते हैं। साहित्य अकादमी के उस समय के उप-सचिव डा० प्रभाकर माचवे ने मुझे एक बार उनकी एक डूडलिंग भेजी थी जो उन्होंने साहित्य अकादमी की किसी मीटिंग में बैठे हुए की थी। उस डूडलिंग में उन्होंने मेरा नाम एक कागज़ के टुकड़े पर लिखा था और उसके चारों ओर किरणें जैसी बनाई थीं. ऊपर आग के कछ चिह्न थे नीचे पानी के। पता नहीं पण्डितजी के दिमाग में मेरे बारे में क्या विचार आये थे? वही डूडलिंग मेरे कागज़-पत्रों में कहीं रखी है, मिल गयी तो उसका ब्लॉक बनवाकर पुस्तक में देना चाहता हूँ। पण्डितजी के बहुत से डूडलिंग नेहरू म्यूज़ियम में सुरक्षित हैं, कुछ के ब्लॉक बनाकर छापे भी गये हैं।
मुझे उस समाचार से प्रसन्नता हुई थी। इतना महत्त्वपूर्ण व्यक्ति कभी-कदा मेरे बारे में सोचता है, यह मेरे लिए कम गौरव की बात नहीं है।
मेरी ऐसी धारणा है कि पण्डितजी के मन में कहीं इस बात की छोटी-सी ग्लानि थी कि उन्होंने किसी गलतफहमी में, किसी वक्त, मेरे प्रति उचित न्याय नहीं किया था। वे मेरे लिए कुछ करके जैसे इसका प्रतिकार करना चाहते थे और उन्होंने समय आने पर किया भी।
मैं इलाहाबाद युनिवर्सिटी में अपनी पुरानी जगह पर काम करता जा रहा था, वहाँ से सन्तुष्ट न होते हुए भी, पर मन में यह विश्वास रखे हुए कि पण्डितजी मेरे योग्य कोई अच्छी जगह दृष्टि में आने पर उस पर काम करने के लिए मुझे बुलायेंगे।
पण्डितजी ने युनिवर्सिटी के मेरे वेतन के बारे में पूछा था।
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