जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
विभाग का सारा तन्त्र मुझे यह कटु अनुभूति करा देना चाहता था कि तुम आज भी ठीक उसी जगह पर हो, जहाँ सवा दो वर्ष पूर्व अपने को छोड़कर गये थे, जिसमें मेरा वेतन भी सम्मिलित था। शेष तन्त्र के सामने तो भीतर से मैं विद्रोह भी कर सकता था कि, 'जी नहीं, मैं सवा दो वर्ष पूर्व जहाँ था वहीं नहीं हूँ, सवा दो वर्ष तो बहुत होते हैं,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं
पर रुपया, आना, पाई के सामने तो भावना की नहीं चलती।
जिस समय मैं इंग्लैण्ड गया था उस समय वेतन के रूप में मुझे 460/= मासिक मिलते थे, 35/-प्रतिमास मँहगाई भत्ता, 20/=प्रतिवर्ष वेतन-वृद्धि का क्रम था। जब मैं लौटा तो मुझे एक साथ दो वर्षों की वेतन वृद्धि के साथ 500/=मासिक मिलने लगे, पर मँहगाई भत्ता बन्द हो गया, क्योंकि वह पाँच सौ से नीचे पाने वालों के लिए था। शायद आप समुझें कि 5/=की वेतन वृद्धि फिर भी हुई। वह भी नहीं हुई। भत्ते पर इनकम टैक्स-प्राविडेन्ट फण्ड नहीं कटता था, वह पूरे का पूरा मिल जाता था।
तनख्वाह पर तो कटना ही था, और फलस्वरूप जितनी राशि पहले हाथ में आती थी, अब उससे 1/= ज़्यादा आने लगी। दो वर्ष से अधिक पहाड़ खोदने पर यही चुहिया मेरे हाथ लगी थी। मेरे सहयोगी मेरी पीठ-पीछे अगर यह कहकर मुझ पर व्यंग्य करते थे कि 'फरहाद मर गया, अंग्रेज़ी विभाग में अपनी औलाद छोड़ गया,' तो क्या अनुचित करते थे!
पर दो बातें मेरे सहयोगी नहीं जानते थे। एक यह कि किसी आर्थिक लाभ को दृष्टि में रखकर मैं अपना शोध-कार्य पूर्ण करने के लिए इंग्लैण्ड नहीं गया था। हाँ, इतना मैं ज़रूर चाहता था कि यह कार्य यदि अपनी सँजोई यत्किचित राशि को हाथ लगाये बगैर हो सके तो अच्छा। पर परिस्थितिवश अगर वह सम्भव नहीं हो सका तो अपना सब कुछ होम कर भी यह यज्ञ पूरा कर लेने में न मैं हिचका, न मेरी पत्नी हिचकी। और, और भी जो कठिनाइयाँ आयीं, उनके लिए हम बे-तैयार तो नहीं थे। हम बहुत पहले जान चुके थे :
जिस जगह यज्ञ होता राक्षस आ ही जाते।
दूसरी बात, कि मेरे अर्जन का क्षेत्र केवल युनिवर्सिटी ही नहीं थी। युनिवर्सिटी से इतर क्षेत्र मेरे लिए अब भी उसी प्रकार खुले थे जैसे मेरे जाने के पहले।
एक बार जब हम दोनों ने यह निर्णय ले लिया कि हम अपने मासिक व्यय को अपनी युनिवर्सिटी की तनख्वाह की सीमा में रखेंगे तो हमारी जो भी अतिरिक्त आमदनी थी, वह उस कमी को पूरा करने में लग गयी, जो पिछले दो वर्षों में आयी थी-
बूंद-बूंद ते घट भरै, टपकत रीतो होय
और जब तक वह घट नहीं भरा, उसमें बूंद-बूंद टपकाते जाने का मेरा क्रम बना रहा।
कठिन आर्थिक परिस्थितियों में प्रायः लोग ऐसा काम कर जाते हैं, जिसके लिए उनकी आत्मा गवाही न देती हो या जिसके लिए उन्हें बाद में पश्चाताप हो। परमात्मा को धन्यवाद है कि इसके लिए प्रलोभन आने पर भी मैंने ऐसा कुछ नहीं किया, जिसे मैंने गलत समझा हो या जिसे करके मैं पछताया हूँ। फरहाद अपनी चट्टान डाइनेमाइट से भी उड़ा सकता था, पर तब शायद फरहाद खुद उसके साथ उड़ जाता। फरहाद ने अपनी चट्टान तिल-तिल काटी। चट्टान कट के रही और इस प्रक्रिया में फरहाद के पुढे टूटे नहीं, मज़बूत ही होते गये।
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