जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
श्री सत्येन्द्र अथैया बम्बई में मुझसे मिले थे। इलाहाबाद युनिवर्सिटी के पूर्व छात्र थे-बडे चलते-पूर्जे, बड़े मिलनसार, कुशाग्र बुद्धि जितने थे उससे अधिक अपने को प्रदर्शित करने में प्रवीण, पी० सी० बैनर्जी होस्टल में रहते थे। अपनी पढ़ाई समाप्त कर, कई प्रतियोगी परीक्षाओं में नाकामयाब हो, सिनेमा-संसार में अपनी किस्मत आज़माने के लिए बम्बई पहुँच गये थे। बड़े तपाक से मिले और बड़ी प्रलोभनपूर्ण शब्दावली में चट उन्होंने एक प्रस्ताव मेरे सामने रख दिया, 'पार्टनर, एक तस्वीर के लिए गीत लिख दो और अपनी मोटर से इलाहाबाद जाओ। आपके गीतों के भाव उडा-उडाकर लोग चाँदी काट रहे हैं।' सिनेमा की दनिया ने ऐसे प्रलोभन मेरे पथ में पहले भी डाले थे, पर मैं उनसे अपने को बचा ले गया था। उस समय भी मेरे कानों में किसी ने कहा, 'सतीत्व भ्रष्ट करने के लिए एक वेश्यावृत्ति पर्याप्त है।' मैंने उनसे क्षमा माँगी।
'गलती कर रहे हो, बिरादर, सोच लो, आदर्शों के चक्कर में मारे जाओगे,' वे बोले।
मैंने कुछ सोचकर कहा, 'मेरे पूर्व-लिखित गीतों को कोई लेना चाहे तो मुझे आपत्ति न होगी, दी परिस्थिति, दी मन:स्थिति, दी लय पर मुझसे गीत न लिखा जायेगा।'
जब से अमिताभ फिल्म-क्षेत्र में आये हैं, मेरे कुछ गीत फिल्मों के लिए माँगे गये हैं। मेरे बहुत से पाठक मुझसे पूछते हैं, क्या अब आप फिल्मों में गीत लिखने लगे हैं?' बिल्कुल नहीं। मेरे जो भी गीत लिये गये हैं, वे पूर्व-लिखित हैं, अपने पूर्व रूप में ही।
इलाहाबाद में ही एक प्रकाशक ने मुझे घेरा, हमारे लिए पाठ्य-पुस्तक तैयार कर दीजिये, हिन्दी के साथ अब अंग्रेज़ी में भी आपके नाम की धाक है, तीन बरस के लिए भी आपकी पुस्तक हाई स्कूल या इंटर में लग गयी तो आप मालामाल हो जायेंगे।'
मैंने उनको एक दोहा सुनाया,
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डार
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवार।
उन्होंने मेरा मतलब न समझा तो समझाना पड़ा। पाठ्य-पुस्तक बनाने का काम पेंउदों को सीने-जोड़ने का है, या कैंची, लेई का। यह काम मैंने कभी नहीं किया। काम की अवज्ञा नहीं करता, काम शायद होशियारी का है। मुझसे करायेंगे तो बिगड़ जायेगा। सुई का काम सुई से ही लेना बुद्धिमानी है।
बहुत कुछ तर्क-वितर्क के बाद वे इस पर उतर आये कि आप केवल अपना नाम दे दें, काम वे दूसरों से करा लेंगे।
प्रकाशक से मैंने हँसकर कहा, 'नाम को छोड़कर और मेरे पास क्या है, वही मेरा एकमात्र आधार है, नाम को ही लेकर तो मैं खटता-खपता हूँ। नाम को ही बेच दंगा तो मेरे पास रह क्या जायेगा? मेरा नाम बिकाऊ नहीं है।
प्रकाशक फिर मेरे पास न आया।
मेरे अपने प्रकाशक ने अगर एक पुस्तक पर अग्रिम रायल्टी देकर शेष पुस्तकों की भी रायल्टी बन्द कर दी थी तो मैं उससे झगड़ा नहीं कर सकता था। लेखक का प्रकाशक से झगड़ा उसके लिए हितकर नहीं। गिरधर कविराय ने अपनी एक कुण्डलिया ‘साईं ये न विरुद्धिए...' से आरम्भ करके उन तेरह लोगों के नाम गिनाये हैं, जिनको तरह देने से ही बन आती है। आज गिरधर मुझसे मिलते तो मैं उनसे कहता उसमें 'प्रकाशक' का नाम भी जोड़ दें। लेकिन यह अक्ल आये, इसके पहले मैं अपने प्रकाशक से झगड़कर कुछ किताबें दूसरे प्रकाशक को दे चुका था। अगर दूसरे ने उन पर रायल्टी न दी थी तो रायल्टी की रकम भी कुछ खास न बनी थी। कारण यह था कि पिछली किताबें विज्ञापित तो बहुत दिनों से पहले प्रकाशक के नाम थीं। आर्डर उन्हीं के पास आते और वे आर्डर चुपचाप फाड़कर फेंक देते, वे अपने प्रतिद्वन्द्वी को फायदा क्यों पहुँचायें, पर मारा बीच में मैं जा रहा था।
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