जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
फिर भी, जब नयी पुस्तक प्रकाशित कराने की योजना बनी तो मैंने वह नये प्रकाशक को ही दी, उनसे लाभ लेने को, मुझे उन्हें विज्ञापित भी करना था। पंजाबी में एक कहावत है कि 'अंधे से कुछ काम कराना तो उसे घर छोड़ने जाना।'
प्रवास में लिखी मेरी कविताएँ जब टाइप होकर आ गयी तो मुक्त छन्द और छन्दोबद्ध कविताओं की अलग-अलग फाइलें बनाकर मैंने अपनी मेज़ पर रख दी-अपनी थीसिस के साथ-जब कभी उन पर दृष्टि जाती, तब मेरे पिछले वर्षों के शोध-सृजन का यह मूर्त रूप मुझे बहुत सन्तोष देता।
कविताएँ- मुख्यतया गीत-मैंने 'मिलन यामिनी' के पश्चात् एक विशिष्ट योजना के अन्तर्गत लिखनी आरम्भ की थीं, और अपने शोधकाल में भी मैंने वह क्रम जारी रखा था, परन्तु देश लौटकर अपनी उद्विग्न मन:स्थिति में उसे आगे बढ़ाने में मैंने अपने को असमर्थ पाया और फिलहाल उसे मैंने अपने मन से उतार दिया, या वही मेरे मन से उतर गया। जो मेरे सिर चढ़कर नहीं बोला उसे मैंने शायद ही कभी लिपिबद्ध किया हो। उसे आंशिक रूप में प्रकाश में लाने की मेरी इच्छा नहीं थी, भले ही योजना पूरी होने में और कई वर्ष लग जायें। पर कई बातों ने मेरे इच्छा-बल को कमज़ोर कर दिया।
मेरे नये प्रकाशक का कहना था कि पिछले चार वर्षों से मेरी कोई नयी किताब नहीं निकली, निकलेगी तो उसकी खूब माँग होगी और इससे उनका प्रचार हो जायेगा। मेरे गीत मेरे प्रवास में भी देश की पत्र-पत्रिकाओं में निकल रहे थे और मेरे लौटने पर लोग मेरे किसी नये संग्रह की प्रत्याशा कर रहे थे। उधर चुनाव करने को भी मेरा मन तैयार नहीं था- मुझे लगता था कि एक इमारत जो अभी अधबनी ही है, कैसे उसकी ईंटों को जहाँ-तहाँ से निकालना शुरू कर दूं। यह अप्रिय कार्य करने का भार श्री (अब डॉक्टर) ओंकारनाथ श्रीवास्तव ने लिया। वे युनिवर्सिटी के नाते मेरे प्रिय पूर्व-शिष्य थे, मेरे पास अक्सर आते-जाते थे, मेरी फाइलें प्राय: कौतूहलवश उलटते-पलटते थे। उनका भी आग्रह था कि मेरा नया संग्रह आना चाहिए। अन्ततोगत्वा मैं पुस्तक निकलवाने को सहमत हो गया। ओंकार ने 59 कविताएँ चुर्नी और वे छपने के लिए भेज दी गयीं, जो जनवरी 1955 में 'प्रणय-पत्रिका' के नाम से निकली। प्रूफ आदि देखने का काम भी उन्हींने कर दिया। प्रूफ देखते समय मैं अपनी कविताओं में कुछ सुधार-परिष्कार कर दिया करता हूँ। 'प्रणय-पत्रिका' मेरे अन्तिम स्पर्श से वंचित रही।
बाईस वर्षों बाद मैं यह अनुभव करता हूँ कि अपनी योजना को खण्डित कर आंशिक रूप से प्रकाशित करने में मझसे एक भारी सृजनात्मक भूल हो गयी-अक्ल आने में बहुत दिन लगते हैं।
ओंकार ने भी एक शरारत की थी, पता नहीं जानकर या अनजाने, उन्होंने अपने चुनाव से कविताओं का हीर निकाल लिया था। अवशेष को मैं देखता तो समझ ही न पाता कि कहाँ-कहाँ और कैसे मैं फिर से ईंटों की जोड़ाई, चुनाई शुरू करूँ। शेष कविताएँ जब 'आरती और अंगारे' (1958) के नाम से निकली तब तक भी, मुझे यह आशा थी कि मैं अपनी योजना किसी दिन पूरी कर सकूँगा, आगे के गीत 'मेरे और तुम्हारे बीच' शीर्षक से लिखूगा और तब फिर तीनों संग्रहों की कविताओं का क्रमांकन नये सिरे से करूँगा और उन्हें एक बड़ी सम्यक् कृति के रूप में प्रस्तुत करूँगा, 'अभिनय प्रणय पत्रिका' के नाम से, जिसके बाद उपयुक्त पिछले तीनों खण्ड-संग्रह स्वतन्त्र रूप से नहीं निकलेंगे। बात यह है कि किसी बड़ी सांगोपांग रचना की कल्पना में, सर्जक के नाते मेरा यह अनुभव है, उसकी परिणति-तीव्रतम स्थिति- पहले सामने आती है। उसे लक्ष्य में रखकर प्रस्थान बिन्दु से चलना होता है, लक्ष्य से प्रस्थान करना, यह कला-जगत की विरोधाभासी पर मान्य प्रक्रिया है।
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