जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
मेरी आयोजित 'प्रणय-पत्रिका' की तीव्रतम स्थिति, उसका लक्ष्य उन गीतों में अभिव्यक्ति पा चुका था जो 'प्रणय-पत्रिका' में चुन लिये गये थे, विशेषकर उसके अन्तिम गीतों में। वे निकल गये तो मेरे सामने सिर से अलग धड़ ही पड़ा रह गया जैसे, और उससे फिर सिर जोड़ उसे प्राण-प्रतिष्ठित करना मेरे लिए सम्भव न हो सका। मेरी योजना पूरी नहीं हो सकी और अब तो शायद ही कभी हो सके। मेरे मन पर लगे हुए धक्के, मेरी बदली परिस्थितियाँ, तेजी से बदलता-भागता समय और आवेगपूर्वक परिवर्तित होता हिन्दी-कविता का सारा परिवेश-शायद सभी मुझे उस मनः वातावरण से दूर हटा ले गये, जिसमें मेरी कल्पित 'प्रणय-पत्रिका' की रचना सम्भव थी। इस कारण ओंकार को, अपने प्रकाशक को अथवा अपने को ही इस विफलता के लिए उत्तरदायी ठहराना गलत होगा। सृष्टि में अपूर्णताएँ कम हैं? और साहित्य में भी क्या कम हैं? और अपनी दृष्टि से जिन्हें हम पूर्ण समझ लेते हैं, वे ही कितनी पूर्ण हैं ! सब कुछ प्रयोग ही तो है, और असफल प्रयोगों से भी कुछ सीखा जा सकता है, कम-से-कम मैंने कुछ सीखा है। वैसे जीवन और सृजन की भूलें भी आगे ही ले जाती हैं। हम ऐसे यन्त्र पर आरूढ़ हैं जो रुक जाये, दिग्भ्रमित हो जाये, लौट आये, आगे ही बढ़ता है, पीछे कभी नहीं जाता। यह कम सन्तोष की बात है? यदि मेरे सृजन का मेरे विकास में, मेरे माध्यम के विकास में, कोई स्थान है तो मेरे असफल प्रयोग का भी उसमें योगदान नि:संशय सुनिश्चित है।
'प्रणय-पत्रिका' को प्रत्याशित लोकप्रियता मिली, पर उससे मिली रायल्टी से कहीं अधिक कवि-सम्मेलनों से मिले पारिश्रमिक ने मेरी आर्थिक स्थिति सुधारने में मेरी सहायता की। दो-ढाई वर्षों में मैंने किसी कवि-सम्मेलन में भाग न लिया था। अब निमन्त्रणों की भरमार रहती थी। मैंने बहुत पहले कवि-सम्मेलनों में जाने के लिए अपने ऊपर एक शर्त बाँधी थी-कवि सम्मेलनों में तभी जाऊँगा, जब युनिवर्सिटी में छुट्टी हो, कवि सम्मेलनों के लिए युनिवर्सिटी से कभी छुट्टी न लूँगा।
और उस नियम का पालन मैं अब भी करता था। कवि-सम्मेलनों में भाग लेने के लिए पारिश्रमिक लेने की प्रथा एक प्रकार से मैंने ही चलाई थी और शुरू-शुरू में 'हिन्दी-सेवा' के लिए भी पारिश्रमिक चाहने पर जो गालियाँ मुझे दी गयी थीं, जो लांछन मुझ पर लगाये गये थे, वे सब मैंने सहे-झेले थे। अब तो यह माँग सर्वस्वीकृत है, और हिन्दी के बहुत से गलेबाज़ कवि इन कवि-सम्मेलनों से, जो अब हर नगर, कस्बे में-कभी-कभी गाँव में भी-हर मेले-ठेले, नुमाइश, वार्षिकोत्सव, जयन्ती, सभा, सम्मेलन, समारोह के अवसर पर आयोजित किये जाते हैं, अच्छी-खासी रकम लूट रहे हैं-एक से दूसरे कवि-सम्मेलन में धावा मारते हुए- हर दिन उनका बिस्तर बँधा, हर वक्त वे पा-ब-रकाब।
उन्हीं दिनों मैंने कवि-सम्मेलनों के ह्रास के लक्षण भी देखे। धीरे-धीरे उनका साहित्यिक रूप घट और मनोरंजनी रूप बढ रहा था। कवि जनता को अपने स्तर पर उठाने के बजाय वाह-वाही लूटने के लिए उसके धरातल पर उतर रहा था-या तो गलेबाज़ी और सिनेमाई तों का सहारा लेकर या हल्के-फुल्के हास-व्यंग्य विनोद का। फिर तो गायक और नबी के स्वरों में बोलने वाले हूट किये जाने लगे और विदूषकों की आरती उतारी जाने लगी। महफिलों का यह रंग देखकर किसी ने लिखा था, 'बुलबुलों को यह शिकायत है हम उल्लू न हुए।' दादुरों के बोलने और कोकिलों के मौन रहने की बेला आ गयी थी। नयी कविता से काव्य-पाठ की एक नयी विधा का आरम्भ हो सकता था, पर नये कवि यह मानकर चले कि कविता सुनाने की चीज़ नहीं है-छपे हुए पेज़ पर आँख से पढ़ने की चीज़ है। उन्होंने कविसम्मेलनों का बाइकाट कर दिया। परिणाम यह हुआ कि कवियों के दो दल हो गये-कवि सम्मेलनी कवि और पुस्तकी कवि। इससे कविता और कवि-सम्मेलन दोनों की हानि हुई। कवि-सम्मेलन नयी विचार-भावधारा से वंचित हो हास्य कवियों का अखाड़ा हो गया और नयी कविता केवल किताबी चर्चा हो गयी, उसका जन-सम्पर्क समाप्त हो गया, जो कविता के लिए स्वस्थ स्थिति नहीं।
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