जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
युनिवर्सिटी में पढ़ाने को मुझे वही क्लास दिये गये थे जिन्हें मैं इंग्लैण्ड जाने से पहले भी पढ़ाता था, यानी बी० ए० के; एम० ए० के नहीं दिये जाते तो उनसे मेरी गरिमा न बढ़ जाती, जिसे घटाने की नहीं तो जैसी थी, वैसी ही है बताने कीकम-से-कम मुझे-सारी कोशिश की जा रही थी। पढ़ाना मुझे अच्छा लगता था। मैं मेहनत से पढ़ाता, यथायोग्यता, विधिवत्-पाठ को आकर्षक, रोचक, ग्राह्य बनाकर, प्रत्येक विद्यार्थी पर दृष्टि रखते हुए, प्रत्येक में रुचि लेते हुए। पढ़ाना मुझे सदा से एक सर्जनात्मक क्रिया लगती थी-एक सजीव, सम्भावना-संकल. उभरते. ताज़गी बिखेरते-कभी कुछ शरारत या नटखटपने के रूप में भी माध्यम को निखारना, सँवारना, संस्कार देना। मैंने अपने विद्यार्थियों से सदा सहयोग पाया है, कुछ उससे भी बढ़कर, उनका समादर, उनका स्नेह। कैसे विद्यार्थी अपने अध्यापकों को छेड़ते, परेशान करते, पढ़ाने न देते, उनकी बात न मानते, उनका विरोध करते या क्लास में शोर-गुल मचाते-यह मैंने जाना ही नहीं, जैसे कवि-सम्मेलनों में हूट होना। और न यही मेरी कल्पना में आता है कि कैसे अध्यापक अपने सामने उठती विद्यार्थियों की नयी पीढ़ी को अवज्ञा, उदासीनता अथवा निरपेक्षता की दृष्टि से देख सकता है,
सब उठती चीजें मन मेरा हर लेती हैं-
दाहक निदाध के बाद
गगन उनए बादल,
उफनी नदियाँ,
उगते पौधे,
बढ़ती फसलें,
उभरा यौवन,
उठती कौमें
उमड़े भावों के गीत गठे,
धरती की फोड़ परत
नभ को
छूने को
उठते
फ़ौआरे!
('उभरते प्रतिमानों के रूप' से)
मैंने केम्ब्रिज में सजन-शोध साथ-साथ किया था-बहुत असफलतापूर्वक नहीं, हालाँकि पहले मुझे ये दोनों प्रक्रियाएँ एक-दूसरे के विरोधी लगती थीं। पर बाद को मुझे दोनों में एक प्रियकर समन्वय दिखा था, अनुभव हुआ था। जब कोई गाड़ी बहुत तेजी से चलाई जाती है तो इंजन को रोक देने पर भी वह अपनी पूर्व गति के बल पर कुछ देर चलती रहती है। ज़ाहिर है कि थीसिस पूरी कर देने पर शोध की प्रक्रिया रुक गयी थी, पर सृजन तो चल रहा था। क्या आप विश्वास करेंगे कि सृजन-प्रक्रिया में जब मेरा दिमाग सक्रिय होता था तब कोई-न-कोई शोध की योजना पर काम करने की इच्छा भी उसमें जागती थी। मैंने अपने दिमाग में शोधक-केन्द्र जाग्रत कर लिया था और वह इतनी जल्दी सुप्त होने वाला नहीं था। बी० ए० को पढ़ाने के लिए मुझे किसी प्रकार की तैयारी की आवश्यकता न होती-वही पाठ्य पुस्तकें, वही नाटक, वही कविताएँ, वही निबन्ध-सब पर मेरे नोट्स तैयार, लेक्चर तैयार, बरसों से। सृजन का काम तो कोई नित्य-नैमित्तिक काम न था-प्रेरणा मिली तो रोज़, न मिली तो महीनों नहीं। ऐसी अवस्था में मैंने शोध की एक नयी योजना बनाई जो अगर मैं युनिवर्सिटी में रहा आता तो शायद किसी दिन पूरी हो जाती। मनुष्य, जीवन में अधूरी छोड़ी किन-किन चीज़ों को लेकर रोये ! शायद बहुत-सी ऐसी चीजें मन को कुछ संस्कार देकर चली जाती हैं, सम्भवतः अगले जन्म में सक्रिय होने की। कौन जाने!
केम्ब्रिज के दिग्गज आचार्यों ने मुझे शोध का यह रहस्य स्पष्ट किया था कि अध्येता शोधार्थी को अपना विषय ऐशोन्मेष (Revelation) के रूप में प्राप्त होता है। बाद को उसे तथ्यों तथा तथ्याधारित कल्पना के पथ से उस तक पहुँचना चाहिए। मुझे अपने पूर्व शोध का विषय भी क्या इसी तरह प्राप्त नहीं हुआ था!
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