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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


तथ्यों से पथ का शोध और तथ्याधारित कल्पना के सहारे उसका निर्माण भी करने के लिए मुझे कितना पूर्वी और पश्चिमी धर्म-तन्त्र और ओकल्ट ('रहस्यवादी' के बजाय 'निगूढ़' शब्द शायद 'ओकल्ट' के अधिक निकट है 'रहस्यवादी' 'मिस्टिक' के लिए रूढ़ हो चुका है।) से सम्बद्ध साहित्य चाटना पड़ा था-नीरस, नि:स्वाद, दुर्गम और दुर्बोध और उनके प्रति कवियों की रुचि और कुतूहल ने ब्लेक से लेकर ईट्स तक की कितनी रचनाओं को कितना क्लिष्ट, अस्पष्ट किन्तु साथ ही कितना सारगर्भित बना दिया था। इन रचनाओं पर पश्चिमी ओकल्ट के प्रभाव का थोड़ा-बहुत विश्लेषण हुआ था, परन्तु पूर्वी धर्म-तन्त्र के प्रभाव की प्राय: उपेक्षा हुई थी, जान-बूझकर उतनी ही नहीं जितनी पाश्चात्य मस्तिष्क द्वारा उसकी अग्राह्यता के कारण। क्यों न इस पर एक विस्तृत शोध-प्रबन्ध लिखा जाये The Shadow of the Orient on English Poetry from Blake to Yeats'ब्लेक से लेकर ईट्स तक की अंग्रेज़ी कविता पर पूर्व की छाया।' एक बार तो मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरे लिए मेरे शोध का विषय ऐशान्मेषित हो गया। इंग्लैण्ड के पुस्तकालयों में कितनी सामग्री इस पर मिलती ! पर, जो सामग्री युनिवर्सिटी और पब्लिक लाइब्रेरी में थी, उससे कुछ शुरुआत करने में क्या हर्ज़ था ! मैं युनिवर्सिटी का काम खत्म कर, किसी रेस्ट्राँ में चाय आदि पी, कभी पब्लिक लाइब्रेरी में, कभी युनिवर्सिटी लाइब्रेरी में जा बैठता और विषय से सम्बद्ध पुस्तकें निकलवाकर पढ़ता, उन पर सोचता और नोट लेता। लाइब्रेरी बन्द होती तो घर लौटता-पब्लिक लाइब्रेरी अधिक रात तक खुली रहती। वहाँ युनिवर्सिटी के किसी अध्यापक को न पाकर कभी-कभी सोचता-इक्के-दुक्के विद्यार्थी और लाइब्रेरी के कर्मचारी मुझे कितना बड़ा सनकी समझते होते होंगे! क्या मुसीबत पड़ी है इन्हें जो अकेले बुद्धसे यहाँ बैठे हैं! इन्हें और कोई काम नहीं है? और न जाने कब मैं केम्ब्रिज युनिवर्सिटी लाइब्रेरी के ऐन्डरसन रूम में पहुँच जाता-शोधार्थियों के लिए खास-अब तो वहाँ की अलमारी पर मेरी भी थीसिस लगी होगी-कितने सहयोगी, साथ काम करते हुए, कितनी पठन-सामग्री, कितनी शान्ति ! और यहाँ युनिवर्सिटी की सड़कों पर ढोल-ताशों के साथ कभी सिनेमा के पोस्टरों का जुलूस निकलता, कभी लाउड-स्पीकरों से विद्यार्थी आन्दोलनों के नारे लगते, कभी कुछ और एलान किये जाते। ऐसे शोरगुल में चिन्तन क्या होता, खाक!-युनिवर्सिटी के अधिकारी अभी इतना भी नहीं कर सके कि इन बाजों-गाजों, लाउडस्पीकरों पर युनिवर्सिटी क्षेत्र में प्रतिबन्ध लगा दें। अपने देश की परिस्थितियाँ हैं, उन्हें बदल नहीं सकते तो उन्हें स्वीकारो। आँगन को टेढ़ा कहोगे तो यहाँ यह कहने वाले बहुत मिलेंगे कि नाच नहीं जानता।

1954-55 के युनिवर्सिटी सत्र में अपने खाली वक्त को मैंने अपनी उसी सनक में काटा-और मैं क्या पढ़ रहा हूँ, किस दृष्टि से पढ़ रहा हूँ, इसका पता मैंने किसी को भी न दिया, तेजी को भी नहीं। तेजी को आश्चर्य होता, लाइब्रेरी में इतनी-इतनी देर में क्यों बैठने लगा हूँ? ऐसा मैं पहले तो कभी नहीं करता था ! पर, शायद वे जानती थीं कि इंग्लैण्ड से लौटने पर जो कुछ अप्रिय, असह्य और अप्रत्याशित मैंने पाया है, उसे झेल जाने के लिए मुझे कहीं-न-कहीं व्यस्त रहने की ज़रूरत है, चाहे वह काम इस कोठी का धान उस कोठी में करने जैसा बेकार ही क्यों न हो। मेरे दिमाग की दो बरस पुरानी शोधार्थी आदत मुझसे यह सब करा रही है, इस ओर उनका ध्यान शायद ही गया हो। लाइब्रेरी से किताबें मैं घर पर भी लाता और जब भी खाली रहता, उनमें जुटा रहता। शोध-दृष्टि मेरी वास्तव में पैनी हो गयी थी-कितनी ही पढ़ी हुई चीजें फिर पढ़ता तो उनके पीछे कुछ नये ही संकेत देखता। अफसोस, कि इलाहाबाद युनिवर्सिटी को मेरी नयी दृष्टि की कोई आवश्यकता नहीं थी। नहीं याद कि कोई शोधार्थी भी मेरे निर्देशन में काम करने को मुझे सौंपा गया हो।

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