जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
समकालीन इलाहाबादी साहित्यिक परिदृश्य की भी एक झाँकी मेरी आँखों के सामने है, हालाँकि मेरी हस्ती उसमें एक नदी के द्वीप से अधिक की न थी। वहाँ का साहित्यिक-जगत्, जैसा कि उसके एक सदस्य ने स्वयं कभी कहा था, मुझे 'आउट-साइडर' समझता था, और मैं भी न तो 'इन साइडर' होने की तमन्ना रखता था और न 'आउट-साइडर' माने जाने से किसी तरह से विक्षुब्ध। बहुतों को कारण शायद मेरे अंग्रेजी विभाग से सम्बद्ध रहने में दिखाई दे, हालाँकि कारण कहीं और गहरे थे जिनका सम्बन्ध सृजन और साहित्य के प्रति मेरे अपने दृष्टिकोण से थाकवि को जीवन की सच्ची अनुभूतियों को वाणी देनी चाहिए, कवि अपने ही निकट-से-निकट जाकर जीवन के अधिक-से-अधिक समीप आ जाता है, कवि यदि जीवन से प्रतिबद्ध हो तो उसे किसी और के साथ प्रतिबद्ध होने की आवश्यकता नहीं, न किसी वाद से, न किसी तथाकथित साहित्यिक आन्दोलन से, न किसी सभा-सोसायटी से, सृजन एकान्त क्षणों की वाणी होकर ही पाठक के एकान्त क्षणों का उद्बोधक होता है, सर्जक और भावक के बीच की एकमात्र कड़ी सृजन है जिससे अपना सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उसे किसी दूसरे की ज़रूरत नहीं रह जाती, यानी कवि के लिए सीधे अपने पाठक तक और पाठक के लिए सीधे अपने कवि तक जाने के लिए मार्ग खुला है। वहाँ किसी की सिफारिश न सहायक होती है, न किसी का विरोध आड़े आता है, पर्याप्त है कि हम जिस समाज और युग के लिए सृजन कर रहे हैं, उसके समक्ष पूरी तरह खुले रहें कि उसको पूरी तरह अपने सृजन-व्यक्तित्व में आत्मसात कर सकें। समाज और युग अलग इकाइयाँ नहीं हैं, वे देश और काल से जुड़कर, यानी इतिहास से जुड़कर ही अपने पूरे सन्दर्भ में प्रकट होते हैं; और उसको समझने के साधन हैं-हर एक की अपनी क्षमता और सीमा में ग्राह्य, बोधगम्य। ऐसे सिद्धान्तों को जीने वाला प्रायः समाज के प्रति लापरवाह या उससे अलग भी लग सकता है, गो वह वास्तव में होता नहीं। वह स्वयं भी ऐसी गलतफहमी में रह सकता है। आखिर कुछ अलग, कुछ असामान्य होना ही तो उसके होने का औचित्य है, अधिकार है। कम-से-कम वह इसकी कामना तो कर ही सकता है:
मैं गाऊँ तो मेरा कण्ठ-
स्वर न दबे औरों के स्वर से,
मैं जीऊँ तो मेरे जीवन
की हो सब से अलग रवानी।
मैं नतशीश तुम्हारे आगे आयर के शायर अभिमानी।
अपने चारों ओर के साहित्यिक दृश्य की एक झाँकी प्रस्तुत करने का लोभ इसलिए नहीं संवरण कर पा रहा हूँ कि शायद आप मुझे उसके बीच रखकर देखना चाहें या मेरी दृष्टि से उसे–नदी से द्वीप को, द्वीप से नदी को।
इस साहित्यिक नदी के दो पुराने, बड़े घाट थे पंत और निराला-एक-दूसरे से भिन्न ही नहीं, एक-दूसरे के ध्रुव विपरीत।
पंत जार्ज टाउन (अब टैगोर टाउन), अंग्रेज़ी सिविल लाइन के देसी संस्करण, की हैमिल्टन रोड पर रहते थे, रेडियो के चीफ एडवाइज़र के रूप में ऊँची तनख्वाह पा रहे थे, उनसे मिलने-जुलने वालों में थे शिष्ट, सम्भ्रान्त, सफेदपोश नागरिक। निराला मोहल्ला दारागंज की गन्दी गली में रहते थे, दूसरों की सहायता-उदारता पर निर्भर-आश्रित थे, उनसे मिलने-जुलने वालों में थे, प्रायः कुछ अपढ़, अधपढ़े, अर्ध-ग्रामीण-अर्ध-नागरिक जो उनके सम्पर्क से अपनी ही महत्ता बढ़ाने के प्रति सचेत थे। मैं पन्त के पास अधिक जाने वालों में था, निराला के पास कम। निराला के चारों ओर जो महादेवी ('महदेव' से विशेषण, जैसे 'स्कूल' से 'स्कूली') बारात होती, उससे मेरी रुचि बिदकती थी।
ये बाहरी बातें हुईं। औदास्य और दैन्य के जिस वातावरण में मैं निराला के विक्षुब्ध और विक्षिप्त रूप को देखा करता था, उसे भूल सकना मेरे लिए शायद कभी सम्भव न होगा। एक त्रासदी का नायक अपने जीवन-नाटक के अन्तिम अंक में प्रवेश कर चुका था। वह त्रासदी ही इसलिए थी कि वह नायक का दायित्व, उसकी निर्मिति, उसकी नियति थी। परिस्थिति से संघर्ष करने की स्थिति जब रही हो, तब रही हो, अब तो उन्होंने उसे जैसे स्वीकार कर लिया था। यह स्वीकार ही जैसे उस परिस्थिति पर एक कटु व्यंग्य हो, उसके प्रति एक तीक्ष्ण दृष्टि मौन विद्रोह। उन्हें आप अपनी संवेदना, करुणा दे सकते थे, पर उन्हें अपने त्रासद अन्त की ओर जाने से एक कदम भी पीछे नहीं लौटा सकते थे।
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