जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
पंत ने अपने जीवन की लड़ाई आदर्शवादी तलवार से ही नहीं, समझौतावादी ढाल के सहारे भी लड़ी थी, इसलिए वे जीवन-समर में यदि विजयी नहीं हुए थे तो पराजित भी नहीं हुए थे। साथ ही वे जीवन में विभाजित व्यक्तित्व की इकाई थे, यानी भावना-जीवन में उन्हें कुछ भी सहना-भोगना पड़े, उनका सर्जक व्यक्तित्व एक परिनिष्ठित परिष्कृत शैली में उनके बुद्धि-विवेक-गत विचारों को वाणी देने से उपराम न होता था। निराला के व्यक्तित्व में ऐसा कोई विभाजन न था, इसलिए जिस समय उनका व्यक्तित्व हारा, उस समय उनका सर्जक भी सृजन से पराङ्मुख हो गया, जिस समय वे संघर्ष से टूटे उस समय उन्होंने अपने कवि-लेखक को भी ध्वस्त-धराशायी पाया। निराला जिस आग में आहुति हो गये, पंत ने उस आग को साधा। आहुति बनना कठिन है तो आग को साधना भी सरल नहीं है। मैंने दोनों को श्लाघा की दृष्टि से देखा था।
महादेवीजी इन दोनों घाटों के बीच में पुल के रूप में थीं। उनका कवि तो उनसे बहुत पहले विदा ले चुका था पर गद्य जब भी वे लिखती थीं, उसमें जीवन्तता होती थी, ताजगी बोलती थी। सृजन जैसे-जैसे उनका कम होता गया था, वे सृजनेतर साहित्यिक कार्य-क्षेत्रों में अधिकाधिक सक्रिय होती गयी थी। इधर उनकी प्रसिद्धि अपने घर को 'जू' बनाने की हो गयी थी, जिसमें वे पाले हुए थींकुत्ते, बिल्ली, हिरन, खरगोश, मोर, मैना, तोते आदि के साथ एक पीर, बबर्ची, भिश्ती, खर भी।
युनिवर्सिटी हिन्दी विभागी घाट की औपचारिक अध्यक्षता थी डा० धीरेन्द्र वर्मा की, पर सृजनशील साहित्यकार के नाते वहाँ चौधराहट थी डॉ० रामकुमार वर्मा की-जैसे पुराने नेपाल में, राज चले राजा का पर हुक्म चले राना का-उनके विद्यार्थी, शोधार्थी, बोधार्थी उनकी आज्ञाकारिता में, चाटुकारिता में। किसी समय उनकी गिनती 'वर्मात्रयी' में होती थी, भगवतीचरण वर्मा और महादेवी वर्मा के साथ और वे छायावाद के परम परिष्कृत (Polished) कवि माने जाते थे। पर अब वे कविता से हटकर एकांकियों पर ज़ोर आजमा रहे थे, उनके कुछ विद्यार्थी-शोधार्थी तो उन्हें एकांकियों का प्रवर्तक और सम्राट भी मानते थे, हालाँकि उनसे पहले भी हिन्दी में एक एकांकीकार हुआ था, जिसका नाम गणेशप्रसाद द्विवेदी था।
युनिवर्सिटी घाट अपने में वैविध्य की एक मिसाल था। वहाँ एक ओर 'रसाल' ऐसी हस्ती थी, जो रीतिकाल के बाद की कविता को कविता ही नहीं मानती थी तो नयी कविता को ही कविता मानने वाले जगदीश गुप्त और धर्मवीर भारती जैसे कवि थे और डॉ० रघुवंश और रामस्वरूप चतुर्वेदी जैसे आधुनिकतम मानदण्डों से लैस समालोचक।
भारती का परिमली रूप इतना उभर कर लोगों के सामने आ गया था कि उनकी व्यक्तिगत उपलब्धियों की ओर लोग कम देखते थे। उनकी प्रतिभा स्यूडो' इलाहाबादी नहीं, खाँटी इलाहाबादी थी और उस वर्ग में अपने बाद, कम-से-कम समय क्रम में-मैं उनको सर्वप्रमुख मानता था। भारती ने अपने 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' और 'ठण्डा लोहा' से हिन्दी गद्य-पद्य को जो आक्रामक ताज़गी दी थी, उसका मैं प्रशंसक था-अभिव्यक्ति में कुछ ऐसा नियमन-सन्तुलन, चिन्तन-भावना में कुछ ऐसी तरतीबी जो पश्चिम के मुख्यतः विज्ञान-युगीन साहित्य में आभासित होती है। मेरी ऐसी धारणा है, उनकी कविता का यह अनुशासन उनके आधुनिक पाश्चात्य काव्य के अध्ययन से आया था जिसका सबूत बाद को 'देशान्तर' (1960) ने दिया। इस सब से 'अंधा युग' की भूमिका तैयार हो रही थी।
खाँटी इलाहाबादी प्रतिभा का ज़िक्र आ गया है तो पण्डित पद्मकान्त मालवीय को कैसे भूलूँ? वे मेरे समकालीन थे, पर वे साहित्य संसार से रिटायर हो द्रौपदी घाट में रहे थे। भारती के बाद इस कडी में मैं पं० उमाकान्त मालवीय को मानता हैं. बीच में 'गोपेश' भी उभरे थे। सी० बी० राव इलाहाबाद से बाहर जाकर पलुहाये। जब लौटे अपने कवि को बाहर ही छोड़ आये थे, उनका गद्यकार मुखर हो गया था।
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