जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
|
201 पाठक हैं |
आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
दुनिया के साहित्य का इतिहास देखें तो स्वप्न और सत्य दोनों से उच्च कोटि का काव्य लिखा गया है-आकाश की तरफ भी देखकर, धरती की तरफ भी देखकर। एक की अतिशयता पर दूसरे का विद्रोह भी बराबर हुआ। आकाशी उड़ान और धरती गड़ान दोनों अतिशयताएँ हैं। आदर्श स्थिति यह है कि गड़ा रहे ज़मीन में, उठा रहे आसमान में, घरहरे या मीनार के समान।
हिन्दी में शताब्दी के मध्य दशकों में जो नयी कविता का आन्दोलन चला, वह वास्तव में छायावादी अति ऊर्ध्व की प्रतिक्रिया में अति समता का आन्दोलन था। एक अर्थ में यह आन्दोलन, गो आन्दोलन की शक्ल में हरगिज़ नहीं, मेरी कविता के साथ ही आरम्भ हो गया था, पर 'आउट साइडर' की ओर ‘इन साइडर' की नज़र नहीं जाती। खैर!
प्रयाग में इस नये आन्दोलन की केन्द्र 'परिमल' नामक संस्था थी! 'परिमल' की स्थापना के समय में मौजूद था। उसकी सौवीं बैठक मेरे मकान (17 क्लाइव रोड, इलाहाबाद) की छत पर हुई थी। मैं उसका सदस्य कभी नहीं रहा, निमन्त्रित सदा उसकी सार्वजनिक बैठकों में किया जाता था। हर संस्था के कुछ नियम, कुछ मर्यादाएँ होती हैं, सदस्यता के अर्थ हैं-उनसे बँधना। मैं नहीं बँधा। आन्दोलन, प्रचार, विज्ञापन, वकालत, गुटबन्दी दो-चार लोगों को या दो-चार विचार-सिद्धान्तों को, थोड़ी देर के लिए, उभार-उछाल भले ही दें, पर सृजन का आन्तरिक मूल्य निर्धारित करने के लिए काल जिस मानदण्ड का प्रयोग करता है, उसे बनाने में ये सब योग नहीं देते। आन्दोलन और संस्थाओं का उपयोग अथवा शोषण ( मेरा मतलब 'एक्सप्लायट' करने से है, जो शोषण से शायद कम स्वार्थ-व्यंजक शब्द है) भी कुछ इने-गिने लोग कर पाते हैं, गो उनमें कुछ प्रतिभा का होना भी आवश्यक है। 'परिमल' से लाभ उठाने वाले चन्द लोगों के नाम छिपे नहीं हैं। मुझे संस्था से कुछ लेना नहीं था, और मैं संस्था को कुछ देने योग्य हूँ, इसमें किसी सदस्य को शायद ही विश्वास हो।
वस्तुतः यह नयी उभरती पीढ़ी की संस्था थी, जो एक ओर तो संकीर्ण राजनीति-पीड़ित प्रगतिवादिता की विरोधिनी थी और दूसरी ओर उस विघटित और अभिनव छायावादिता की, जिसकी स्वप्निलता, आदर्शवादिता, भावातिशयता और छन्दरागमयता अब उनके चारों ओर से कटु सत्यों की दुनिया से दूर की चीज़ लगने लगी थी। इस नयी पीढ़ी को अपने से पहले ही पीढ़ी के सब लोग इन्हीं उपर्युक्त विरोधी शिविरों में दिखाई पड़ते थे। स्वाभाविक है कि अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए, अपने लिए रास्ता बनाने के लिए, यह पीढ़ी तथाकथित 'बड़ों' की उपेक्षा ही नहीं करती थी, बल्कि एक सूक्ष्म सुनियोजित ढंग से उनका उपहास करना, उन पर प्रहार करना, उन्हें नीचा दिखाना और उन्हें गिराना भी चाहती थी-गो साहित्य के क्षेत्र में मनुष्य किसी के गिराने से नहीं, अपनी कृतियों की कमज़ोरी से गिरता है। साथ ही कुछ पुराने संस्कारों से या पुराने के नाम-स्थान का अपने हित में कुछ उपयोग करने के लिए वे उन्हें पूछते भी थे। 'नयी कविता', डा० जगदीश गुप्त और डा० रामस्वरूप चतुर्वेदी के सम्पादकत्व में निकली तो उसका प्रवेश-लेख पंतजी से लिखाया गया। 1954 में परिमल का जो द्वि-दिवसीय वार्षिक उत्सव हुआ उसका सभापतित्व करने को 'दिनकर' जी बुलाये गये। भारती, विजयदेव नारायण साही, केशवचन्द्र वर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी, जगदीश गुप्त, डा० रघुवंश 'परिमल' से विशेष रूप से सम्बद्ध हुए।
रेडियो घाट पर दो प्रतिभाएँ थीं, पंत के अतिरिक्त- भारत भूषण अग्रवाल और डॉ. प्रभाकर माचवे-दोनों 'तार सप्तक' के कवि थे। वे अपने को 'अज्ञेय' का शिष्य तो न मानते थे, पर 'अज्ञेय' अपने को उनका गुरु अवश्य मानते थे, गुरु नहीं तो पथ-प्रदर्शक अवश्य। उनमें से एक ने जब गुरु से विद्रोह किया तो गुरु ने बड़ी डाँट-भरी कविता लिखकर उसकी भर्त्सना की। अग्रवाल के काव्य में चुटीला व्यंग्य था। माचवे, लगता था, कविता को सयत्न कछ असाधारण बनाते हैं। अपनी प्रतिभा को बहुत दिशाओं में बिखेरने से वे एक स्थान पर विशिष्टता पाने से वंचित रह गये।
|