जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
अज्ञेय बहुत इलाहाबाद में रहे, बहुत कुछ यहाँ उन्होंने किया, 'प्रतीक' निकाला, 'जवाहरलाल नेहरू अभिनन्दन ग्रन्थ' सम्पादित किया, बहुत कुछ अपना सृजनशील साहित्य भी लिखा होगा। पर वे यहाँ के होकर न रह सके। उनमें अन्तर्राष्ट्रीयता और यायावरी के तत्त्व इतने प्रबल हैं कि वे एक देश से दूसरे देश, एक नगर से दूसरे नगर में बसते-उखड़ते रहते हैं। इलाहाबाद आकर फिर कोई इलाहाबाद से जाता है? वे यहाँ आकर यहाँ से चले गये, यह उनकी या तो कोई खासियत बताता है या उनमें कुछ कमी। कल्पना आप करें! अज्ञेय, माचवे, अग्रवाल 'परिमल' के निकट न आ सके। वे लोग प्रयोगवादी थे; 'परिमल' का आन्दोलन उनसे चार कदम आगे नयी कविता का था। 'अज्ञेय' को इलाहाबाद से उखाड़ने में 'परिमल' ने भी तो कोई भूमिका न अदा की थी।*
*क्या इसी की भड़ास निकालने को उन्होंने अपना व्यंग्य लिखा-'पाँच पत परिमल 'कन्नो के करते आत्म प्रचार'!'
खुसरू बाग के घाट पर उपेन्द्रनाथ अश्क थे-कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, निबन्धकार, सम्पादक, सदा-बीमार मगर सदा लिक्खाड़। उनकी शायद ही कोई किताब आप पढ़ें जिसमें उनकी गम्भीर बीमारी का ज़िक्र न हो। सच हो तो उनके दुर्निवार कलम-संचार पर उनके आगे नत-मस्तक होना पड़ेगा। साहित्य आधी कला है, आधा व्यापार, इसको उन्होंने खूब अच्छी तरह समझा था। नीलाभ प्रकाशन उनका अपना था। उदीयमान लेखकों से अश्क हमेशा सम्बद्ध रहे। कुछ लोगों का खयाल है कि वे उनके पोषक थे, कुछ का कि वे उनके शोषक, अपनाअपना अनुभव। खेवट वे जीवट के थे और हर हवा को अपने पाल के अनुकूल कर लेने में माहिर।
अश्क के प्रतिलोम थे इलाचन्द्र जोशी। कलकत्ता बदर होकर, पता नहीं किस कारण, इलाहाबाद में आकर बसे थे। इलाहाबाद में उन्होंने कवि-रूप में प्रवेश किया था। बाल-संस्कार तो वे छायावादी कवियों से लाये थे, कविता-संस्कार भी। आते ही उनका एक काव्य-संग्रह निकला था। पर इलाहाबाद में कवि-रूप में इतने बड़े-बड़े दिग्गज डटे थे कि वे उभर न सके और उपन्यासविधा की ओर झके। गद्य-शैली वे अपने बड़े भाई हेमचन्द्र जोशी के साथ 'विश्वमित्र' के सम्पादनकाल में ही परिमार्जित कर आये थे। स्वयं संघर्ष कर आगे बढ़ने का माद्दा उनमें न था। उन्हें आगे बढ़ाने वालों में थे धर्मवीर भारती और गंगाप्रसाद पाण्डेय। पाण्डेय उन्हें 'आदरणीय जोसीजी' कहकर सम्बोधित करते थे। साथ-सम्पर्क भी 'जोशीजी' का इन्हीं दो तक सीमित था। जोशीजी ने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को अपने चरित्र-चित्रणों में विशेष स्थान दिया। मेरी ऐसी धारणा है, भारती ने 'गुनाहों के देवता' में जोशीजी की कला से काफी प्रेरणा ली।
अमृतराय प्रेमचन्द के सुपुत्र की ख्याति और उग्र प्रगतिवादी का बाना पहनकर इलाहाबाद आये थे। सुनते हैं कि इलाहाबाद की मातदिल आबोहवा ने उनको बहुत साधा है। आम-फ़हम, बामुहाविरा और उर्दू-हिन्दी की गंगा-जमुनी शैली से वे खिलाड़ी की तरह खेलते थे। 'कलम का सिपाही' से जीवन-चरित साहित्य का उन्होंने एक मानदण्ड स्थापित किया। पर प्रगतिशीलता के समर्थन में उनको श्रीकृष्णदास और भैरवप्रसाद गुप्त से आगे कोई न मिला।
नरेश मेहता उन दिनों इलाहाबाद नये-नये आये थे और अपनी कोई प्रकाशनसंस्था खोलने के फेर में थे, इलाहाबाद में नवागंतुकों को यह रोग बड़ी जल्दी लगता है। कहानीकार मार्कण्डेय के भी कोई पत्रिका निकालने, कोई प्रकाशन संस्था खोलने के असफल प्रयासों की याद लोगों को न भूली होगी।
इलाहाबाद तो अशरण की शरण है। शमशेर भी बारह घाटों का पानी पीकर फिर इलाहाबाद आ गये थे और किसी घर के किसी कोने में अपनी चित्रकला का अभ्यास करते थे। याद है, एक बार पंतजी ने उनके चित्रों की एक प्रदर्शनी का उद्घाटन किया था। पुरानी पीढ़ी के होकर भी उनके नयी कविता के मसीहा माने जाने में अभी दस-पन्द्रह बरसों की देर थी।
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