जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
लक्ष्मीकान्त वर्मा इलाहाबाद की किसी कम जानी-मानी बस्ती में रहते थे, पर अपनी काव्य-प्रतिभा के अदम्य विश्वासी थे, पैना गद्य भी उनके जैसा कम लोग लिख सकते थे। साहित्य में उनके प्रति न्याय नहीं हुआ और समय ने उनको बहुत तोड़ा, पता नहीं, आजकल कहाँ है, कहां गायब हो गया है उनका साहित्य!
इलाहाबाद भी क्या अजीबोगरीब शहर है! यह इसी शहर में सम्भव था कि एक तरफ तो यहाँ ऐसी नयी कविता लिखी जाय जिस पर योरोप और अमरीका को रश्क हो और दूसरी तरफ यहाँ से एक ऐसी पत्रिका प्रकाशित हो जिसका आधुनिकता से कोई सम्बन्ध न हो-सम्पादकीय को छोड़कर। पण्डित श्रीनारायण चतुर्वेदी 'सरस्वती' की द्विवेदी युग से भी पीछे ले जाकर जिलाये जा रहे थे, आश्चर्य इस पर था।
और अन्त में इलाहाबाद का एक आदमी और था जिसे आप वहाँ की हर सभा-सोसायटी-गोष्ठी में अवश्य पाते। उसका नाम था वाचस्पति पाठक। कभी उसने कहानियाँ लिखी थीं, अब वह भारती भण्डार प्रकाशन का प्रबन्धक था। बनारस का था, बनारसी पान से हर समय मुख रजित किये। 'स'को 'फ' बोलता था. यानी 'प्रसाद' को 'प्रफाद' कहता था। कछ बहरा था इस कारण वह सबको बहरा समझता था और इतने ज़ोर से बोलता था कि किसी भी जल्से से उसकी आवाज़ को आप अनसुनी नहीं कर सकते थे। भारती भण्डार का कोई लेखकबड़े-से-बड़ा भी, जिसमें पंत-निराला भी थे- उसकी अवहेलना नहीं कर सकता था, क्योंकि लेखकों की रायल्टी तो उसकी मुट्ठी में रहती ही थी, वह लेखकों को परेशान करने के बहुत से तरीके जानता था। दुर्भाग्य से मैं भी उसके चंगुल में था।
ऐसा था वह साहित्यिक परिवेश जिसमें मैं अपने को उन दिनों पा रहा था। पता नहीं, इसमें 'आउट साइडर' समुझे जाने के लिए आप मुझसे ईर्ष्या करेंगे. या मुझे सहानुभूति देंगे।
मेरे इंग्लैण्ड के लिए प्रस्थान करने के पूर्व ही जिस कविता को 'प्रयोगशील' के नाम से अभिहित किया जाता था, उसने 'नयी कविता' का नाम ले लिया था। प्रथम 'तार-सप्तक' के प्राय: उपेक्षित रहने-और आठ वर्ष के बाद भी उसके दूसरे संस्करण की मांग न होने के बावजूद दूसरा सप्तक' प्रकाशित कर दिया गया था, लौटने पर नवयुवक कवियों से बातचीत करने के दौरान, भोगा हुआ यथार्थ', 'क्षण की अनुभूति', 'लघु मानव की अभिव्यक्ति', 'अर्थ की लय' आदि टुकड़े उनके द्वारा बराबर प्रयोग किये और दोहराये जाने लगे। उसी साल 'नयी कविता' का पहला अंक निकला। उसकी कविताएँ मुझे उन कविताओं से बहुत दूर नहीं लगी, जैसी कि मैं छह हज़ार मील की दूरी पर बैठा पिछले दो वर्षों में लिखता रहा था, मेरा मतलब है मुक्तछन्द वाली कविताओं से। अमूर्त सिद्धान्तों की बहस में तो मैं न पड़ा था, पर मेरा ध्यान था कि हिन्दी की काव्य-मनीषा जिन भाव-विचारों से आन्दोलित हो रही थी, उसके स्पंदनों का अनुभव मेरी कविता ने भी किया था। नये आन्दोलन से मैं भी किसी प्रकार संपृक्त हूँ, इससे अधिक सन्तोष इस बात का था कि हिन्दी की मनीषा एक संगठित इकाई है-उसमें कहीं कुछ सबल-सशक्त घटित होगा तो उसके प्रभाव से उसका दूर-सुदूर कोई कोना भी वचित न रहेगा।
भाषा से संपृक्त होने का अर्थ मेरे लिए है समाज से संपृक्त रहना। भाषा यदि समाज के चिन्तन-मनन, गतिविधि, विकास का अपरिहार्य माध्यम है तो कोई भी सप्राण लेखक, चाहकर भी, चूँकि वह भाषा के माध्यम से अपने को व्यक्त करता है, समाज से असंपृक्त नहीं रह सकता।
नये आन्दोलन से मेरे संपृक्त होने की यह व्याख्या आपको न भाये तो आप यह भी कह सकते हैं कि मैं सींग कटाकर बछड़ों में शामिल होना चाहता हूँ और मैं इस पर कोई आपत्ति न करूँगा, आपत्ति करनी होगी तो करेंगी मेरी 'बुद्ध और नाचघर' से लेकर 'जाल समेटा' तक की कविताएँ।
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