जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
54-55 के युनिवर्सिटी सत्र की मेरी स्मरणीय यात्राएँ थीं कलकत्ता और पटना की और सत्रांत पर ग्रीष्मावकाश में नेपाल की।
कलकत्ता में 'भारतीय संस्कृति संसद' नाम की एक संस्था है। उससे मेरा पुराना सम्बन्ध था। वह प्रतिवर्ष बड़े पैमाने पर एक कवि-सम्मेलन कराती थी और मुझे ज़रूर बुलाती थी। विदेश में रहने के कारण दो-तीन वर्षों से मैं उसमें भाग न ले सका था। संसद की ओर से प्रस्ताव आया कि वह केम्ब्रिज से मेरे डॉक्टरेट लेने के उपलक्ष्य में मेरे सम्मान में एक आयोजन करना चाहता है।
प्रस्ताव मुझे कुछ अजीब-सा लगा। मेरी नयी उपलब्धि का सम्मान जहाँ होना चाहिए था, वहाँ तो मुझे अँगूठा दिखाया जा रहा था और हिन्दी की एक साहित्यिक संस्था मेरा सम्मान करना चाहती थी।
मैंने उसे लिखा, 'यदि संसद मुझे औपचारिक सम्मान देने का आग्रह न करे और आयोजन को एक विशुद्ध कवि-सम्मेलन का रूप दे जिसमें मुझे अपनी नयी कविताएँ सुनाने का अवसर दिया जाये तो मुझे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार्य होगा।' संसद मान गया।
आधुनिकता के चातुर्य-चटुल युग में लोग एक ही तीर से कई लक्ष्य भेदना चाहते हैं। मंच पर कई मूर्तियाँ ऐसी थीं जिनका सम्बन्ध पत्रकारिता, युनिवर्सिटीशिक्षण तथा बंगाल के सामाजिक जीवन से था। विदेशी डॉक्टरी का ऐसा सुरखाब का पर मैं लगाकर गया था कि उसके लिए बधाई तो मुझे दी ही जाने वाली थी, फिर भी आयोजन का मुख्य बल मेरी नयी कविताओं के पाठ पर रहा। मुझे देखकर प्रसन्नता हुई कि मेरी नयी कविताएँ भी जनमानस को छूती हैं। अधिक कहना मेरे लिए उचित न होगा।
उस आयोजन की एक खास बात मुझे आज तक याद है। उन दिनों भारत सरकार के डाक-तार संचार मन्त्री रफी अहमद किदवई कलकत्ता में थे। संसद ने उन्हें भी आमन्त्रित कर दिया था और वे आने को तैयार हो गये थे। मुझसे उनका व्यक्तिगत परिचय न था पर मेरे नाम से शायद वे अपरिचित न थे।
हमारे गुलाम-संस्कारी देश में कुछ ऐसी प्रवृत्ति है कि शुद्ध साहित्यिक समारोहों में भी यदि राजनीतिक नेता पधार जायें तो लोगों का सारा ध्यान उन्हीं की ओर खिंच जाता है-प्रबन्धक, पत्रकार, फोटोग्राफर, ऐरे-गैरे-सब उन्हीं के पीछेआगे, बायें-दायें ललआने लगते हैं। किदवई साहब के आने पर भी यही हुआ, पर उस दिन उनके व्यवहार से मुझे उनके बड़प्पन का एक अचूक सबूत मिला। शायद बर्क ने कहीं लिखा है कि अगर बड़े आदमी के साथ बरसात से बचने के लिए तुम्हें किसी छाया में खड़े होने का अवसर मिले तो वह इतने थोड़े समय में भी अपने बड़प्पन का कोई-न-कोई सबूत तुमको दे देगा। स्वाभाविक था कि मन्त्रीजी के आने पर लोग उन्हें मंच पर ले जाते और वे भी चले जाते। किदवई आये तो बिना किसी प्रदर्शन के, सहज रूप में, झट से श्रोताओं के बीच बैठ गये। अब क्या था, मंचस्थ लोग नीचे उतर पड़े, संसद के अधिकारी, उत्सव के प्रबन्धक उन्हें घेर कर उनसे ऊपर बैठने का आग्रह करने लगे। पर वे इसके लिए तैयार न हुए बोले, 'साहब, यह अदीबों और शायरों का स्टेज है। मैं ठहरा सियासती गुण्डा। मैं इस पर पाँव रखने की जुर्रत नहीं कर सकता।' काश, किदवई जैसे गुण्डे कुछ और होते!
संसद ने मख्य सम्मेलन के अतिरिक्त दो गोष्ठियों का भी आयोजन किया था. एक बंगाल क्लब में, जिसमें मेरे समवयस्क बंगला के कुछ साहित्यकारों को आमन्त्रित किया गया था, दूसरी किसी सम्भ्रान्त महिला के घर पर, जिसमें कुछ नवयुवक कवि बुलाये गये थे।
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