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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


पहली गोष्ठी में बातें शुरू हुई नहीं कि रवीन्द्र नाथ टैगोर पर आ गयी-बंगला लेखकों से बातचीत करने का जब-जब अवसर मिला है, मैंने देखा है कि टैगोर की चर्चा कहीं-न-कहीं ज़रूर आ जाती है, यहाँ तो आनी ही चाहिए थी, मेरा परिचय ईटस-साहित्य के विशेष स्वाध्यायी के रूप में दिया गया था। लोग टैगोर और ईटस के व्यक्तिगत सम्बन्ध को जानते थे, और उनके सम्बन्ध में कुछ सही-गलत बातेंईटस ने गीताजंलि का अनुवाद किया था (उन्होंने केवल अनुवाद सधारा था), उसकी भूमिका लिखी थी, टैगोर को नोबेल पुरस्कार दिलाया था (हालाँकि उन्हें खुद तब तक यह पुरस्कार नहीं मिला था) और यह कि वे टैगोर के समान
रहस्यवादी थे। यह धारणा भारत के कुछ-पढ़े, कुछ-सुने शिक्षित, शायद ज़्यादा ठीक होगा कहना अर्द्धशिक्षित, लोगों में इतनी व्यापक है कि मुझे बीसों जगह इसका प्रतिवाद करना पड़ा है। टैगोर और ईट्स के सम्बन्ध में समता का इतना आकर्षण नहीं था, जितना विषमता का। इस गोष्ठी में भी मैंने कहा कि टैगोर नि:संशय आस्था और वांछित की प्राप्ति के कवि हैं, ईट्स के सामने सर्वदा प्रश्न खड़े रहे, ईट्स की खोज हमेशा जारी रही। टैगोर का बल उपनिषदों से लेकर सन्त कवियों तक की परम्परा है, ईट्स ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में व्याप्त विज्ञानपोषित सन्देहवाद के प्रभाव में ईसाइयत के भी सचेत संस्कारों को नकार दिया, और सर्वथैव अप्रतिबद्ध मानव के जग-जीवन-काल सम्बन्धी सौ-सौ सवालों का जवाब ढूँढ़ने के लिए वे कहाँ-कहाँ नहीं मारे-मारे फिरे। प्रश्न पूछा जा सकता है कि उन्होंने कुछ समाधान पाया? ईट्स ने न समाधान पाया, न तलाश छोड़ी। टेनीसन की 'युलिसीज़' शीर्षक कविता की पंक्ति है,

To strive, to seek, to find and not to yield.
(यत्न करना, खोजना, पाना और हार न मानना)

रोमे रोलाँ ने इस पंक्ति को अपने किसी उपन्यास का मोटो बनाया, उसमें एक शब्द जोड़कर, पर उसकी प्रखरता सौ गुनी बढ़ाकर,

To strive, to seek, not to find and not to yield.
(यत्न करना, खोजना, न पाना और न हार मानना)

यह वाक्य मोटो के रूप में ईट्स की जीवनी को भी दिया जा सकता है। वे जीवनभर ऐसी लड़ाई लड़ते रहे जिसमें न वे विजेता हुए और न उन्होंने पराजय स्वीकार की। इस कारण वे उस मानव के सहज प्रिय हो जाते हैं जिसे जीवन अनवरत समर के रूप में प्राप्त हआ है। टैगोर की शान्ति या तो सहज पलायन है या दर्लभ साधना. पर आज के साधारण मनुष्य का साधारण भाग्य तो वह संघर्ष है, जिसमें विजयी होना तो सम्भव नहीं, पर वह अपने हठ से, ज़िद से, रगड़ से, दृढ़ता से अपनी पराजय को भी असम्भव कर सकता है। मैंने कहा, 'ईट्स और टैगोर के परम्पराविरोधी दृष्टिकोणों का विश्लेषण मैंने अपने शोध-प्रबन्ध में किया है, कभी प्रकाशित हो तो देखियेगा।'

गोष्ठी में जिन बंगला साहित्यकारों और कवियों ने भाग लिया था, उनके नाम मुझे याद नहीं हैं, सिर्फ एक को छोड़कर- श्री बुद्धदेव बसु का। मैं उनको किसी अंश में अपना बंगाली 'काउन्टरपार्ट' (प्रतिरूप) समझता हूँ- उम्र में मुझसे केवल एक वर्ष दो दिन छोटे, उन्होंने भी अंग्रेज़ी लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त की थी, जादवपुर युनिवर्सिटी में तुलनात्मक साहित्य (अंग्रेज़ी-बंगला) के प्रोफेसर थे, लेकिन उन्होंने अपनी सृजन-प्रतिभा का लाभ बंगला को दिया था-कवि, उपन्यासकार, समालोचक, निबन्धकार, बाल साहित्य-प्रणेता-अनुवादक. सम्पादक-सभी रूपों में वे बंगला साहित्य-संसार की ख्याति प्राप्त विभूति थे। शरीर से दुबले-पतले, कद में नाटे, रंग में साँवले, बड़ी-बड़ी आँखें, चौड़ा ललाट, कुछ चौड़ी नाक, फैला मुँह, छोटी ठोढ़ी-देखने में वे मुझे प्रतिभावान, मौलिक चिन्तक और परिश्रमी लगे थे। वे भी, मुझे बताया गया था, हाल ही में किसी अमरीकी युनिवर्सिटी में एक वर्ष अंग्रेज़ी साहित्य के अतिथि-प्रोफेसर के रूप में काम करके स्वदेश लौटे थे। बंगला न जानने के कारण मैंने उनका साहित्य नहीं पढ़ा था, पर अपने बंगाली और बंगला जानने वाले मित्रों से उनके विषय में बहुत कुछ सुन रखा था। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी, पर उनका विशेष योगदान कविता के क्षेत्र में माना जाता था। लोगों का कहना था कि रवीन्द्र मेघ-मण्डित काव्य नभोमण्डल को भेदना बहुत कठिन काम था, और यह बुद्धदेव बसु और उनके कुछ साथियों ने किया था। आधुनिक योरोपीय साहित्य और विचारधारा के विदग्ध अध्येता होने के कारण, अपनी नवीनता के लिए उनको वहीं से प्रेरणा और शक्ति मिली थी, सिद्धान्त-रूप में फ्रायड से, उदाहरण-रूप में टी० एस० इलियट से-उनकी अभूतपूर्व कविताओं से, और उनकी काव्य-सम्बन्धी नयी स्थापनाओं से। मैं यह कहने का अधिकारी नहीं हूँ कि बुद्धदेव इलियट को कितना और किस रूप में बंगला काव्य के लिए ग्राह्य बना सके, अथवा बंगला काव्य पर इलियट का क्या प्रभाव पड़ा। मेरी ऐसी धारणा है कि कवि इलियट न तो स्थानान्तरणीय हैं न अनुकरणीय-कारणों की विवेचना के लिए एक स्वतन्त्र निबन्ध आवश्यक होगा-पर समालोचक इलियट किसी भी काव्यमान्यता को आमूल हिला देने की क्षमता रखते हैं जिसके फलस्वरूप मौलिक सृजन निश्चय बदल जाता है।

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