जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
इलियट ने, सम्भवतः एज़रा पाउण्ड के विचारों से सहमत होकर, कविता को उच्चतम बौद्धिक व्यवसाय माना। इसके बाद कवि से, और पाठक से भी, सम्यक अध्येता होने की माँग स्वाभाविक थी। काव्य-रचना में बौद्धिकता का योगदान पहले भी नकारा नहीं गया था, पर प्रमुखता प्रेरणा, अनुभूति और काव्य-वस्तु को दी जाती थी, इलियट के साथ प्रमुखता काव्य-रूप को मिल गयी, जिसकी अति में कविता बौद्धिक व्यायाम मात्र बनकर रह जा सकती थी। पर जब काव्य-रूप अति परिचय के कारण अवज्ञा पाने लगे, अनाकर्षक और प्रभावहीन हो जाये, तब काव्य को गतिशील रखने के लिए, उसे बदलना आवश्यक हो जाता है। और, यह कुछ उल्टी प्रक्रिया भले ही प्रतीत हो, लेकिन है यह सत्य कि काव्य-रूप बदलने से काव्य-वस्तु भी अन्ततः बदल जाती है। इलियट ने काव्य-रूप को भी बदला, काव्य-वस्तु को भी, और उन्होंने अंग्रेज़ी काव्य को निश्चय ही एक नया मोड दिया पर उनकी अति बौद्धिकता उनकी सीमा बन गयी। काव्य-वस्तु के परिवर्तन में इलियट स्वयं तो अतीतोन्मुखी और रूढ़िवादी बने, पर उनके अन्य समकालीनों और परवर्तियों पर फ्रायड हावी होते चले गये।
ईट्स की स्थिति उनसे भिन्न थी। उन्होंने अपने काव्य-जीवन के प्रारम्भिक काल में आयरी तत्त्व लाकर रूमानियत को नयी आभा दी थी, परन्तु रचना-विधान उन्होंने उत्कृष्ट रूमानी कवियों का ही स्वीकार कर लिया था। बुद्धि को धार देने वाली अकादमिक शिक्षा उन्हें नहीं मिली थी पर काव्य-प्रतिभा उनकी इतनी अगधर्षी थी कि उसने उनकी अप्राप्ति को भी सौभाग्यपूर्ण उपलब्धि मामा। सदर अपनी पूरी सहानुभूति उस अबौद्धिक आन्दोलन को दी, जो उन्नीसवीं सदी की अति बौद्धिकता की प्रतिक्रिया में भीतर-भीतर पक रहा था। उन्होंने अपने को उस खुली, भोली, सहज विश्वासी मन:स्थिति के निकट रखने का प्रयत्न किया, जिसमें जीवन के उच्चतर सत्य और गहनतम मर्म स्वत: उन्मेषित होते हैं। काव्य-रूप को उन्होंने उसी सत्य और मर्म से निरूपित होने को छोड़ दिया। काव्य-जीवन के विकास-क्रम में और उसके लिए उन्हें आधी शताब्दी का समय मिला था, उनमें बौद्धिकता भी जगी, यथार्थ ने भी उन्हें घूरा, पर कविता को कुछ प्राप्ति, कुछ उन्मेष, कुछ मन्त्रवत् वे जीवन के अन्त तक मानते गये। उनके समस्त काव्य में कहीं प्रतीक में, कहीं रूपक में, कहीं सकेत में, कहीं सन्दर्भ में, कहीं ध्वनि-लय में हो, कछ अव्यक्त है जो अव्याख्येय है और सम्भवत: उसका सतत आकर्षण।
सम्यक अध्येता, इलियट के शब्द-शब्द की व्याख्या कर सकता है, पर इसके बाद उसके लिए इलियट-काव्य का आकर्षण समाप्त भी हो जायेगा, इलियट की बौद्धिक सूक्ष्मता और रुचि-विस्तार से वह एक बार चमत्कृत भले ही हो ले। यही उनकी सीमा है, जिसकी ओर मैंने ऊपर संकेत किया है। साधारण पाठक के लिए वे अग्राह्य हैं, अधीत के लिए अस्थायी रूप से आकर्षक। आश्चर्य नहीं, और यह मेरा नहीं, पाश्चात्य आलोचकों का कथन है, निश्चय ही किसी आधार पर, कि समय के साथ ईट्स की लोकप्रियता विद्वानों और साधारण पाठकों, दोनों में बढ़ी है, इलियट की घटी है। अंग्रेज़ी काव्य के विकास-इतिहास में दोनों का महत्त्व है। प्रतिभाओं की न तुलना ठीक होती है, न उनकी पुनरावृत्ति होती है, न उनकी नकल की जा सकती है। हाँ, उनसे सीखा बहुत कुछ जा सकता है।
बुद्धदेव ईट्स को उतनी सहानुभूति और समझदारी नहीं दे पाते थे, जितनी इलियट को, विशेषकर उनके फ्रायडीय प्रसार को; मेरे लिए इलियट न उतने ग्राह्य थे, न उतने आकर्षक जितने ईट्स; मैंने ईट्स-काव्य का अध्ययन पिछले पच्चीस वर्षों से किया था और उसमें मेरी रुचि अब भी बनी हुई थी। मैंने यह बात केम्ब्रिज में भी नोट की थी, जो प्रोफेसर इलियट के प्रशंसक थे, वे ईट्स के नहीं, जो ईट्स के, वे इलियट के नहीं। लीविस बात-बात पर इलियट का नाम लेते थे, हेन से दो वर्षों में शायद ही कभी इलियट पर चर्चा चली हो।
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