लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

201 पाठक हैं

आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


ऐतिहासिक क्रम में, मुझे यह मानने में कोई आपत्ति न थी कि जहाँ तक अंग्रेज़ी काव्य का सम्बन्ध है, इलियट ईट्स के आगे के कदम हैं। बुद्धदेव को इस पर विनोदपूर्ण आश्चर्य था, मेरी कुछ कविताएँ सुनने के बाद कि मेरा सर्जक भी ईट्स के साथ, वह भी अधिक पूर्व-ईट्स के साथ, बँध गया है, जबकि वे इलियटपरवर्ती फ्रायडवाद को भी पीछे छोड़, सद्यः प्रस्फुटित अमरीकी बीट-कविता को भी अपनी सहानुभूति दे सकते थे। सम्भवत: उन्हें अपने अमरीकी प्रवास में इस आन्दोलन को निकट से देखने का अवसर मिला था। केम्ब्रिज में-ऑक्सफोर्डकेम्ब्रिज अतीतोमुखी नहीं तो समय से कुछ पीछे ही रहने में गर्व-गरिमा का अनुभव करते हैं, सामयिक हवा के हर झोंके के साथ उड़ने में नहीं-बीट-आन्दोलन की कोई चर्चा मैंने न सुनी थी। नवयुवक नये कवि फ्रायडीय परम्परा में ही नये-नये प्रयोग कर रहे थे; बीट-नयी कविता का कोई आन्दोलन जैसा वहाँ मैंने न देखा था। लेकिन भारत के साहित्य-सचेत नगरों में नये आन्दोलन की प्रसव-पीड़ा मौनभंग कर चुकी थी। उसे मैंने प्रयाग में आँका था, अब कलकत्ता में (और आगे चलकर काठमाण्डू में भी)।

दूसरी गोष्ठी में अधिक लोग नहीं थे-केवल दस-बारह नवयुवक, उनके चेहरों पर असन्तोष, बेचैनी, आक्रोश, उनके स्वर में अनादर, विद्रोह, प्रखरता। उनके समक्ष मुझे ऐसा लगा जैसे एक पुराना, बीता युग नये, नयी सम्भावनाओं से उच्छल युग के सामने लाकर खड़ा कर दिया गया है। प्रत्याशा यहाँ आदर की नहीं करनी, आरोप-आलोचना के लिए तैयार होना है। बातें यहाँ भी रवीन्द्रनाथ से आरम्भ हुईं पर उनको सम्मान देने की अथवा उनके प्रति ऋणी या कृतज्ञ होने की भावना किसी में नहीं, जैसे वे बंगला के लिए कोई दुर्भाग्य सिद्ध हुए हों, जैसे उनके कारण बंगला की नयी प्रतिभाओं को उभरने में, बंगाल के बाहर उनके ज्ञात-विज्ञापित होने में बाधा खड़ी हुई हो, जैसे उनका समस्त वाङ्मय एक बड़ा सुखद, स्वप्निल, किन्तु क्षयकारी पलायन हो, जैसे उन्होंने बंगला भाषा को कांतासंमित, मृदुल और लिजलिजी बना डाला हो, जैसे उसी के फलस्वरूप बंगाल के अकाल जैसी दुर्घटना बंगला में अमुखरित रह गयी हो, आदि-आदि (क्या आज बंगाल की भूखी पीढ़ी उसी उपेक्षित भूख का प्रायश्चित करने के लिए यौन-बुभुक्षा को मुखरित कर रही है?)

प्रसंगवश मैंने बताया कि बंगाल के अकाल पर मैंने एक लम्बी कविता लिखी थी जिसका अनुवाद भी पुस्तक-रूप में बँगला में प्रकाशित हुआ था; भूपेन्द्रनाथ दास ने अनुवाद किया था; पर उसे किसी ने नहीं पढ़ा था। मेरा यह समझने का प्रयत्न बेकार था कि बड़ी-से-बड़ी प्रतिभा भी देशकाल-भाषा, सामयिक भाव-विचारधारा से प्रभावित और परिसीमित होती है। यदि रवीन्द्र के विरुद्ध उनके जीवनकाल में ही विद्रोह उठ खड़ा हुआ था-बुद्धदेव और उनके सहयोगियों की रचनाओं में तो भी श्रेय रवीन्द्र नाथ को देना पड़ेगा। जब कोई सबल शक्ति सामने हो, तभी विद्रोह खड़ा होता है, तभी उसमें बल आता है, तभी उसमें तेजी आती है, हमारे यहाँ कहावत है कि खूटे के बल बछड़ा कूदता है। नवयुवकों की राय में बुद्धदेव आदि ने जो क्रान्ति की थी, वह भी अपूर्ण थी, बुद्धदेव स्वयं सौन्दर्यवादी थे, बादलेग (उन्नीसवीं सदी के मध्य का फ्रांसीसी कवि जिसका अति सौन्दर्यवाद अस्वस्थ और रुग्ण माना जाता है) से प्रभावित, जिसका अनुवाद भी उन्होंने किया था, उन्होंने केवल सौन्दर्य का स्तर बदला था, उनकी भाषा में भी साहित्यिकता है. कृत्रिमता है, प्रेमेन्द्र मित्र आदि वामपक्षी थे, प्रगतिवादी सिद्धान्त से बँधे। जीवन और यथार्थ को खलकर बोलने का समय अब आया है। मध्ययगीन रुटियों दासता की लम्बी परम्परा और उसके संस्कारों ने इस देश के मनस् को इतना दमित रखा है कि उसे अपने को विमक्त, व्यक्त करने का कभी अवसर ही नहीं आया। पश्चिम में क्या हो रहा है, अभी तो आप देखकर आये होंगे, पूर्व अब पश्चिम का पिछलगुआ बनकर नहीं चल सकता, उससे कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चलेगा, पश्चिम का मनस भी ईसाइयत से दमित था, उसके विरुद्ध क्रान्ति से ही रूमानियत जगी थी, बन्धन कुछ ढीले हुए, पर वह स्वप्नों में खो गयी, फिर से आज़ाद किया है, विज्ञान ने मनुष्य को नया यथार्थ-बोध दिया है। व्यक्ति को पुरासंगठित समाज का अंग नहीं बनना है, नये व्यक्तित्वों का, नये अस्तित्वों का समाज बनाना है। भविष्य पुराने का विस्तार नहीं होने जा रहा है, बल्कि पुराने से टूटकर एक नवारम्भ। इस नये अभियान को कोई रोक नहीं सकता। असली क्रान्ति तो काव्य में, साहित्य में अब होने जा रही है, आदि, आदि।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book