जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
नवयुवकों में अंशत: सहमत होना कठिन नहीं था, पर उनके बढ़-चढ़कर बोलने को मैं समझ रहा था, क्रान्ति का स्वर प्रायः असन्तुलित होता है। मुझे याद है, किसी नवयुवक कवि ने अपनी रचनाएँ भी सुनाईं। सुनकर मुझे लगा कि मैं बहुत पीछे छूट गया हूँ, और समय बहुत आगे चला गया है।
कलकत्ता से रवाना हुआ तो मेरे दिमाग में सवाल पर सवाल उठ रहे थे- क्या सचमुच भविष्य अतीत से एकदम टूटकर चलेगा? या ऐसी कल्पना अतीत से उग्र असन्तोष का संकेत मात्र है? क्या हमारा अतीत इतना निरर्थक है कि भविष्य के लिए उसे कुछ नहीं देना है? या हमारा अतीत एक ऐसे वृत्त का अंग है जो अब पूर्ण हो चुका है और कोई नया वृत्त होने वाला है? (ईट्स-दर्शन के अनुसार-Surely some revelation is at hand; surely the second coming is at handनिश्चय ही कोई ऐशोन्मेष निकट है; निश्चय ही कोई दूसरा अवतार होने को है।) क्या काव्य और साहित्य भी 'टेबुला-रासा' (सादी स्लेट) पर लिखा जायेगा? क्या वह सर्वदा, सर्वत्र लिखे के ऊपर लिखे जाने से ही मौलिक, अर्थवान और सारगर्भित नहीं बना? क्या समाज में रहने वाला व्यक्ति अपनी इकाई में सारे बन्धनों को तोड़कर भी मुक्त हो सकता है? क्या वह सामाजिक संगठन में सहायक नियन्त्रण और संयमों के बिना उच्छृखल ही नहीं हो जायेगा? क्या पश्चिम का मनोवैज्ञानिक सत्य हमारे सार्वजनिक जीवन का-पश्चिम में भी सार्वजनिक जीवन का अंग हो चुका है? क्या पूर्व का, भारत का संस्कृत मनस् सचमुच आधुनिक चेतना के उसी स्तर पर है, जिस पर पश्चिम का? क्या अपनी सामाजिक परिस्थिति से असंपृक्त सारा पश्चिमी और आधुनिक तथाकथित यथार्थबोध हमारे कवियों को अपने ही देश में अजनबी नहीं बनाने जा रहा है? क्या इस यथार्थता के आवरण में एक नये तरह की अयथार्थी रूमानियत ही नहीं जन्म लेने जा रही है? क्या यह नया 'अभियान' भी एक नये तरह का पलायन ही नहीं होगा- पहले वाले से केवल इसी रूप में भिन्न कि यदि वह अफ़ीम के नशे में सुला देता था तो यह निराश, हताश, कुण्ठित और विक्षिप्त बनाकर छोड़ देगा। जिसे नये कवि कान्धा-से-कान्धा मिलाकर चलना कह रहे हैं, क्या वह पिछलगुआपन और अनुकरण ही नहीं है? क्या मुख में अग्रेजी भाषा, तन पर योरोपीय कपड़े, घर में मेज़-कुसी, आलमारी पर कामू, सात्र, काफ़का की किताबें रख लेने से ही हम आधुनिक पश्चिमी बन गये हैं? क्या भौगोलिक दूरियों से दूर हो जाने से ऐतिहासिक दूरियाँ भी मिट गयी हैं? मिट सकती हैं? क्या योरोपीय मनस् की बेचैनी और भारतीय मनस् की बेचैनी-अनुभूत होने पर भी-एक ही प्रकार की है? क्या यह बेचैनी बस सिर का दर्द है कि एक ही तरह की ऐस्प्रो की टिकिया दोनों के लिए डॉक्टर साहब तजवीज़ कर दें? यदि नहीं क्योंकि सामाजिक, ऐतिहासिक आदि पृष्ठभूमियाँ दोनों की भिन्न हैं तो क्या साहित्य, काव्य, कला में उसकी अभिव्यक्ति का एक ही रूप होगा? क्या पश्चिम की गुलामी से मुक्त हो जाने के बाद हमसे यह प्रत्याशा न की जायेगी कि हम अधिक अपने होकर सोचें? क्या हम राजनैतिक गुलामी से मुक्त होकर मानसिक गुलामी को अभी भी सिर चढ़ाये हैं। क्या काव्य-कला-साहित्य के क्षेत्र में मौलिक चिन्तन करने, मौलिक दिशा लेने की शक्ति भारत ने खो दी है? क्या पश्चिम के अनुभवों, प्रयोगों से लाभ उठाकर पूर्व की मौलिक दृष्टि में वांछित परिवर्तन-सन्तुलन लाकर हम कोई ऐसी राह नहीं ले सकते जिस पर हमारे अपनेपन की-हमारी सभ्यता की-संस्कृति की, हमारे ऐतिहासिक चरणों की व्यक्तित्वपूर्ण छाप हो?
कलकत्ता से लौटते हुए मैं दो दिन के लिए पटना रुक गया। पण्डित अमरनाथ झा वहीं थे। युनिवर्सिटी की वाइस चांसलरशिप के तीन टर्म पूरे कर लेने पर-किसी नियम से शायद वे और अधिक उस पर न रह सकते थे-उन्होंने उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन की चेयरमैनशिप स्वीकार कर ली थी, और कछ समय बाद उनका स्थानान्तरण बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन में हो गया था जिसका मुख्यालय पटना में था। मेरे इंग्लैण्ड से लौटने के बाद कई बार उन्होंने मुझे पटना आने और अपने साथ ठहरने को आमन्त्रित किया था। मैंने सोचा, कलकत्ता से लौटते समय दो दिन उनके पास भी रुकता चलूँ।
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