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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


मैंने उनको कलकत्ता से अपने आने के बारे में तार दे दिया था, वे मेरी प्रतीक्षा में थे, और उन्होंने अपनी दो शामें मेरे लिए खाली कर रखी थीं। दिन को उन्हें अपने दफ्तर जाना था, मैं पटना कॉलेज चला गया, वहाँ मुझे श्री देवेन्द्र नाथ शर्मा से मिलना था, जो मेरे केम्ब्रिज-प्रवास के दिनों में लन्दन में थे और रूसी भाषा में डिप्लोमा कर रहे थे। मेरी समझ में आज तक नहीं आया कि इस हिन्दी व्याख्याता को सपरिवार इंग्लैण्ड जाकर रूसी में डिप्लोमा लेने की क्यों सूझी ! जहाँ तक मुझे मालूम है, इस ज्ञान का उन्होंने कोई उपयोग नहीं किया। रूसी जानकर भी रूस में कोई काम पाने, वहाँ जाने की नौबत उनके लिए नहीं आयी। उन्होंने रूसी की किसी विशेष कृति का अनुवाद भी हिन्दी में प्रस्तुत नहीं किया-किसी लम्बी योजना पर काम कर रहे हों तो मैं नहीं जानता।

शर्माजी से मेरा परिचय पुराना था, मेरी कविता के प्रशंसकों में थे, इंग्लैण्ड में हम अधिक निकट आये। लन्दन जाता तो शर्माजी के यहाँ बढ़िया हिन्दुस्तानी खाना खाने को मिलता। शर्माजी मुझे खाना खिलाते और एवज़ में मैं उनको अपनी ताज़ीसे-ताज़ी कविताएँ सुनाता। केम्ब्रिज में लिखी मेरी बहुत-सी कविताओं के प्रथम श्रोता वे ही थे। ब्राह्मण के यहाँ भोजन करने में मैं विशेष तृप्ति का अनुभव करता हूँ। मैं कहता हूँ, 'तुम्हारे पूर्वजों ने हमारे पूर्वजों का कितना अन्न खाया है, उनके वंशजों को कुछ तो अदा करो!'

शर्माजी बड़े प्रेम से मिले। मेरे आने की खबर उनके विद्यार्थियों में पहुँची और शीघ्र ही कॉलेज-भर में फैल गयी। उन्होंने उनका कमरा घेर लिया, 'हमें बच्चनजी से कुछ सुनवा दीजिये, हम बिना उनकी कविताएँ सुने उन्हें जाने नहीं देंगे।' शर्माजी ने मुझसे विद्यार्थियों का आग्रह रखने का अनुरोध किया, मैंने सहमति दे दी। उन्होंने विद्यार्थियों को सूचित कर दिया कि शिक्षण के घण्टे समाप्त होने पर मैं कविता-पाठ करूँगा, सब हॉल में एकत्र हों। लड़के हँसते-कूदते चले गये। अब दो घण्टे क्या किया जाये! उन्होंने कहा, 'चलिये विभागाध्यक्ष श्री नलिन विलोचन शर्मा से मिल आयें।'

शर्माजी से मैं अपरिचित न था। कई वर्ष पूर्व आरा में रैदास-जयन्ती पर आयोजित कवि-सम्मेलन में मैं उनसे मिला था, उन्होंने सभापतित्व किया था, ठहरे भी थे हम दोनों एक ही कमरे में। शर्माजी को मेरी कविता से असन्तोष था, मेरी लोकप्रियता पर साश्चर्य क्षोभ, जो उनकी दृष्टि में, मेरे ही लिए हानिकर थी। वे नि:संकोची स्पष्टवादी थे। उनका कहना था, लोग मेरे काव्य-गुणों के कारण मुझ पर नहीं रीझते, बल्कि इसलिए कि मैं उनकी चिर-दमित यौन-भावना को सहलातागुदगुदाता हूँ। भीड़ कविता की पारखी हो ही नहीं सकती। सन्त तुलसीदास भी अपने कवित्व-विवेक के बल पर जनप्रिय नहीं थे, बल्कि अपनी भक्ति-भावना के कारण। कालिदास उनके आदर्श कवि थे, आधुनिकों में टी० एस० इलियट; समालोचक इलियट से भी वे पूरी तरह अभिभूत थे। विशुद्ध कविता सम्बन्धी आधुनिकतम फ्रांसीसी और अंग्रेज़ी सब सिद्धान्तों से वे अभिज्ञ थे और उनकी अभ्यर्थना भी करते थे। शर्माजी बहु-पठित थे, विद्वान् थे, पूर्व-पुरातन और पश्चिमनवीनतम के अद्भुत सम्मिश्रण।

मैं उनका आदर करता था, पर उनके चिन्तन को एकांगी भी समझता था। बहस में तो उनसे नहीं पड़ना चाहता था, पर इतना ज़रूर मैंने कहा था, कविता का सम्बन्ध यदि जीवन जीने-भोगने से है (मेरे ‘भोगने' की परिभाषा में त्यागने के लिए भी स्थान है) तो यौन-भावना अथवा भक्ति-भावना से कवित्व का उद्भव क्यों गलत समझा जाय? दुनिया की तीन-चौथाई कविता तो यौन भावना से ओतप्रोत होगी, और फ्रायडीय मत मानें तो समस्त कविता किसी-न-किसी रूप में यौन-भावना की ही प्रतिमर्ति है।' शर्माजी ने कहा, 'आप मेरी बात नहीं समुझे।' मैंने कहा, 'आप भी मेरी बात नहीं समुझे, इसलिए अब हम एक-दूसरे को समझने-समझाने का प्रयत्न न करके अपने-अपने को सम्प्रेषित करें-यानी आप अपनी कविताएँ मुझे सुनाएँ, मैं अपनी कविताएँ आपको सुनाऊँ।' हमारी पिछली मुलाकात इसी नोट पर समाप्त हुई थी।

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