जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
किसी को अभिभूत करने में उनके दिमाग से उनकी देह कम नहीं थी-बड़ा-सा सिर, बाहर निकलती-सी बड़ी-बड़ी आँखें और उन पर मोटे फ्रेम का मोटे-मोटे लेंस का चश्मा, देव-सी काया, फूली-फैली-ढीली, शुडहीन लम्बोदर साकार। कुर्सी में कसे बैठे थे।
पहले तो केम्ब्रिज में मेरे कामधाम की चर्चा हुई, फिर उन्होंने मुझ पर अपना आक्रमण शुरू किया। प्रवास से भारत की पत्रिकाओं के लिए भेजी मेरी कविताएँ वे देखते रहे थे, उन्हें पहले भी इस पर आश्चर्य था कि हिन्दी कवियों में अंग्रेज़ी की उच्चतम शिक्षा से दीक्षित होकर भी मैंने आधुनिक पश्चिमी या अंग्रेज़ी काव्य-विधा से कुछ भी नहीं सीखा था, अब तो उन्हें और भी निराशा थी कि दो वर्ष इंग्लैण्ड में रहकर भी मैं छायावाद की ह्यसशील प्रवृत्तियों से ही बँधा था। ईट्स को वे पुराने खेवे के कवियों में गिनते थे, और उन्हें आशंका थी कि ईट्स से प्रतिबद्ध होकर मैं हिन्दी के नये प्रयोगों के लिए और अप्रस्तुत हो जाऊँगा।
मैंने कहा, 'शर्माजी, न मैं छायावाद से बँधा हूँ, न ईट्स से, न कविता से, मैं तो अपने से बँधा हूँ।'
शर्माजी बोले, 'पूरे नहीं, आप अपने से उतना ही बँधते हैं जितने में आप देखते हैं कि आप दूसरों से टूटते नहीं। आप अपने से ही बँधते तो बहुत बड़े कवि होते, भले ही इतने लोकप्रिय नहीं। आपका लोक-मोह आपको अपने से पूरी तरह प्रतिबद्ध होने नहीं देता।'
मैंने उत्तर दिया, 'मैं तो नहीं समझता कि मेरा सर्जक मेरे अतिरिक्त किसी दूसरी ओर देखता है, मैं सच्चाई से कहता हूँ कि यह मेरे सर्जक की सीमा नहीं, हाँ, यह मेरे व्यक्तित्व की ही सीमा हो तो मैं नहीं कह सकता। मैं अपने को अद्वितीय, असाधारण नहीं समझ पाता।'
शर्माजी के पास उत्तर मौजूद था, कवि तो असाधारण होने से ही कवि होता है।'
मैंने विनम्रतापूर्वक कहा, 'यदि मैं साधारण होकर असाधारण होने का 'पोज़' बनाऊँ तो यह और बड़ा झूठ होगा, जो मेरे लिए और बड़ी सीमा बनेगी।'
नलिनजी को बहुत-सी बातों के बारे में कहना था-अपनी कविता, कविता नहीं, 'प्रपद्य', अपने दो और सहयोगियों-केसरी कुमार और नरेश, के प्रपद्य, (तीनों के नामों के प्रथमाक्षरों को जोड़कर अपने गुट को उन्होंने 'न० के० न०,' त्रयी की संज्ञा दी थी, शायद छायावादी युग में उद्घोषित वृहत्त्रयी-पंत, प्रसाद, निराला-लघुत्रयी या वर्मात्रयी-महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, भगवतीचरण वर्माके जोड़ पर; इतिहास अपने को दोहरा रहा था।), 1952 का प्रयोग दश-सूत्री घोषणा-पत्र-जिसे हाल ही में प्रपद्य-द्वादश सूत्री' के रूप में संवर्द्धित किया गया था, प्रपद्यवाद-दर्शन, अज्ञेयी प्रयोगशीलता और 'न के नी' प्रयोगवादिता में अन्तर, और 'तार सप्तक' (1943) के कवियों से भी एक सप्तक पूर्व (यानी 1936 में) हिन्दी में प्रयोगवादी कविताएँ लिखने और इस प्रकार हिन्दी के सर्वप्रथम प्रयोगी होने का अपना दावा। वे निकट भविष्य में अपने न के न-त्रयी का एक सिद्धान्त सुपोषित संकलन भी प्रकाशित करने की योजना बना रहे थे* जिसके बाद उन्हें आशा थी, प्रपद्यवाद का जगन्नाथी-रथ सब वाद-विवादों को कुचलता-पुचलता हिन्दी कविता के पथ पर अबाध गति से अग्रसर होगा।
*यह बाद को प्रकाशित भी हुआ; किस नाम से? - इस समय मेरी स्मृति से उतर गया है।
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