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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


शर्माजी की बातें सुनकर मुझे ऐसा लगा कि उन्होंने 1936 में ही प्रयोगवादी कविताएँ क्यों न लिखी हों, उसके बाद का समय तो जनसाधारण में दिनकर और बच्चन की लोकप्रियता का ज़माना था और स्कूल-कॉलेजी धरातल पर पाठ्यपुस्तकिया समालोचक पंत और निराला की प्रगतिवादी प्रवृत्तियों के विवेचन में उलझे थे-हिन्दी का कोई तीसरा धरातल तो है नहीं-लेखक-पाठकों का ही हम एक तीसरा धरातल न माने लें तो। फलस्वरूप, नलिनजी के प्रयोगों पर कहीं भी ध्यान दिया गया हो, इसकी मुझे जानकारी नहीं, नलिनजी भी शान्त हो गये। प्रथम 'तार सप्तक' (1943) भी अचर्चित रह गया था। पर अज्ञेयजी सहज हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने 1951 में दूसरा 'तार सप्तक' भी प्रस्तुत कर दिया था। तब तक प्रयोगवाद को न तो कोई मान्यता मिली थी, न उसकी कोई विशिष्ट उपलब्धि ही ध्यानाकर्षित कर सकी थी, लेकिन मोदरिस-समालोचकों के लिए उसकी उपेक्षा करते जाना सम्भव न था। तिरस्कारी स्वरों में ही सही, उसकी चर्चा चल पड़ी थी। अब नलिनजी फिर जागे। प्रयोग की उद्भावना तो उनकी थी, पर उसका श्रेय अज्ञेयजी लिये जा रहा था। उन्होंने अज्ञेय की प्रयोगशीलता को अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण बताया और प्रयोगवाद का नया घोषणा-पत्र निकाला और नाम-साम्य-जनित गलतफ़हमी को बचाने के लिए अब अपने वाद को 'प्रपद्यवाद' की संज्ञा देनी चाही। शर्माजी की विचार-प्रक्रिया के पीछे संकुचित प्रान्तीयता भी काम कर रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं, उनकी इस प्रवृत्ति के और भी संकेत मैंने पाये थे,

'पटना-कलम है यह।
पश्चिम की कला का लगा है कलम इसमें...
(चित्राधान-नलिन)

प्रान्तीयता के साथ विदेशीयता पर गर्व। करेला और नीम चढ़ा।

हॉल से विद्यार्थियों का कोलाहल सुनाई पड़ने लगा था। हम लोग वहाँ पहुँचे। देवेन्द्रनाथजी मेरे विषय में कुछ कहने को खड़े हुए, पर श्रोताओं ने उन्हें बिठला दिया। वे व्याख्यान सुनने नहीं, कविता सुनने आये थे। मैंने अपनी नयी-पुरानी कविताएँ सुनाईं, विद्यार्थियों की फ़रमाइशें पूरी की, 'मधुशाला' सुनाई जिसके लिए एक स्वर की माँग थी। नवयुवकोचित उच्छल उमंग-उल्लास के बीच नलिनजी गम्भीर मुद्रा में बैठे रहे, यह मेरी कविता पर उनकी मौन टिप्पणी थी। नलिनजी से यही मेरी आखिरी भेंट थी। चार वर्ष बाद मेरी 'आरती और अंगारे' (1958) छपी तो परिषद् पत्रिका की ओर से उनके पास समालोचनार्थ भेजी गयी। मैंने देखा तो नहीं, पर मुझे किसी ने बताया कि उन्होंने केवल एक पंक्ति लिखी थी, इन रचनाओं को मैं कविताएँ नहीं मानता, इसलिए इनकी आलोचना करने से इनकार करता हूँ' या इसी आशय का कुछ। माने-न-माने गुल ही न माने बाग तो सारा माने है' (मीर से 'जाने' को 'माने' करने के लिए क्षमायाचना सहित)। आठ बरसों के अन्दर 'आरती और अंगारे' के चार संस्करण हुए और न वह कोर्स में लगी है न सरकारी खरीद पर चढ़ी है।

1961 में गृह मन्त्रालय को किसी समिति में बैठा था कि दिनकरजी ने आकर समाचार दिया 'नलिनजी चल बसे।' सुनकर दिल डूब गया। मुझसे 9 बरस छोटे थे। मुझसे छोटों की मृत्यु बहुत कष्ट देती है-मुझे वह बड़ी अप्राकृतिक लगती है। जो पहले आया है, वह पहले जाये, जो बाद में आया है बाद को, पर बहुत बार, शोक है, ऐसा नहीं होता। मैंने उनकी मृत्यु पर एक कविता लिखी-'डूबने वाली नावें', जो 'नयी धारा' के नलिन स्मृति अंक में छपी। अंक आया तो अपनी कविता देखते हुए न जाने क्यों, मेरा ध्यान इस ओर चला गया कि नलिनजी स्वयं इसे देखते तो कहते, 'मैं इसे कविता नहीं मानता।' और मैं उनसे कहता, 'ऐसा कहने के आपके अधिकार को मैं मान देता हूँ, ऐसा लिखने के मेरे अधिकार को आप मान दें।

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