जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
कॉलेज से लौटा तो झा साहब अपने कमरे में अकेले बैठे चाय पी रहे थे। धीमे-धीमे रेडियो बज रहा था, और सब शान्त। उनका बंगला सेक्रेटेरियट के समीप था जो एक बड़ी शान्त बस्ती है, विशेषकर दफ्तर के घण्टों के बाद। वहाँ रहन-सहन का उनका वही तरीका था जो इलाहाबाद में-वैसे ही किताबों से लदी अलमारियों के कमरे में उनकी मेज़-कुर्सी, वैसे ही मेज़ पर नयी-नयी किताबें, वही नियमित कार्यक्रम, सुबह-शाम आये हुए लोगों से मिलना, दिन को दफ्तर, खाली समय में चिट्ठियाँ लिखना या किताबें पढ़ना। घर में सिर्फ तीन नौकर थे, एक उनका खाना बनाता था, एक ऊपर का काम करता था, एक चपरासी जो उनके कमरे के बाहर खड़ा रहता था, आने वालों की सूचना उन्हें पहुँचाने के लिए-सब अपना काम जानते हुए और यथा-समय करते हुए।
अपने यौवन में ही जो विधुर-एकाकी जीवन उन्होंने अपनाया था, उसे बड़ी खूबी के साथ निभा दिया था। वे मुझे थके-उदास लगे, कुछ अस्वस्थ-से। पर चाय पीने के बाद जो एकाध प्रश्न मुझसे उन्होंने पूछे उससे मुझे लगा कि वे मेरी कुछ सुनने को उत्सुक हैं, उनके बिना पहल किये उनसे बात करने की हिम्मत किसे थी! सारी शाम मेरी गाथा में ही बीत गयी, मैंने अपनी थीसिस भी उन्हें दिखाई जो मैं साथ लेता गया था। उन्होंने उसे उलटा-पलटा, बोले, अच्छा काम कर डाला तुमने, प्रकाशित करा देना, इससे तुम्हारा पथ प्रशस्त होगा।'
खाना खाने के बाद उन्होंने मेरी कविताएँ सुननी चाहीं। वे मेरे 'मधुशाला', 'मधबाला' के बडे प्रेमी थे। उस रात 'मधुबाला' से सिर्फ एक कविता उन्होंने सुनी-'इस पार-उस पार।' फिर उन्होंने 'निशा निमन्त्रण', 'एकान्त संगीत' के गीतों के लिए आग्रह किया। उन्हें अपने भावों पर ज़बरदस्त संयम था। उन्होंने अपनी आँखें मूंद ली। मैं बीच-बीच में उनकी ओर देख लेता था। उनके मूर्त मौन ने उस रात मझसे बहत कछ कहा। ग्यारह बजे उन्होंने धीमे-से कहा, 'जाओ, अब सो रहो।'
दूसरी शाम को उन्होंने मेरे सम्मान में अपने बंगले के लॉन में 'एटहोम' का प्रबन्ध किया था। चालीस-पचास लोग उसमें आये थे-झा साहब के मित्र, बहुत-से इलाहाबाद युनिवर्सिटी के पूर्व छात्र, कुछ साहित्यिक बन्धु। झा साहब ने मुझे अपने साथ ले जाकर सबसे परिचित कराया। समाप्ति पर कविता की फरमाइश तो होनी ही थी। मैंने कुछ नयी कविताएँ सुनाईं। 'मधुशाला' सुनाये बिना कहाँ पिण्ड छूटता!
जब सब लोग चले गये तो मैंने झा साहब से कहा, 'आज तो आपने मुझे बड़ा आदर दिया।'
'क्योंकि तुमने मेरे जजमेंट को जस्टीफाई किया, वे बोले, 'जब मैंने युनिवर्सिटी में तुम्हें लिया था तब लोगों ने कहा था, बच्चन की गति अंग्रेज़ी में नहीं, झा ने उनकी हिन्दी कविता के प्रेम में आकर उन्हें अंग्रेज़ी विभाग में रख दिया।'
चीज़ों को देखने का झा साहब का अपना अलग दष्टिकोण था जिसमें सबसे अधिक महत्त्व वे अपने को देते थे। इसमें सन्देह नहीं कि वे आत्म केन्द्रित थे, पर बड़ी गरिमा के साथ, उसमें ओछेपन के लिए कहीं जगह नहीं थी। उनको बुरा-भला कहने वाले, उनकी निन्दा करने वाले कम नहीं थे। यह कहना गलत होगा कि उनको उन्होंने क्षमा कर दिया था। उनको उन्होंने उपेक्षापूर्वक अनसुना रखा था। वे बड़े थे तो अपने अधिकार से, किसी को छोटा करके नहीं और कोई उनको किसी साज़िश में छोटा कर सके, इसके बहुत ऊपर। उनका उठना, बैठना, चलना, हँसना, बालना, देखना, सुनना, उनकी पोशाक, उनके कमरों की साज-सज्जा, उनकी हर बात ऐसी होती थी, जिसे अंग्रेज़ी में 'स्टडीड' कहेंगे, हिन्दी में शायद सुविचारित या सविवेक। हर बात सही करने के अभ्यास ने उन्हें यह आत्मविश्वास दे दिया था कि वे जो करते हैं, वही सही है। उनका अपने हर क्षण पर नियन्त्रण था। वे जो करते थे, वे जानते थे; कुछ उनसे हो गया है, ऐसी स्थिति में शायद ही कभी उनका सामना किया हो। वे अपने व्यक्तित्व में बेजोड़ थे।
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