जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
उस रात भी खाना खाने के बाद देर तक उन्होंने मेरी कविताएँ सुनीं। उनकी राय थी कि मैंने हिन्दी गीतों के आयाम को बढ़ाया है, जैसे मिल्टन ने सानेट के आयाम को विस्तृत किया था-कुछ ऐसे विषयों पर सानेट लिखकर, जिनकी परम्परा नहीं थी, पर उनकी सम्मति थी, 'ऐसे गीतों में टेक की दुहराहट नहीं होनी चाहिए। टेक गीतों में इस बात का संकेत करती है कि जैसे भावना-कल्पना-जगत् में घूम-फिरकर आदमी फिर उसी जगह पर लौट आता है जहाँ से वह चला था। गीत की भूमि पर विचरण कर आने से भावना जैसे अपनी ही जगह पर अधिक गहरी हो गयी है। झा साहब की राय थी कि मेरे नये गीत एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं; हम लक्ष्य पर पहुँच उलटकर यह क्यों देखें कि कहाँ से चले थे; देखें ही नहीं बल्कि लौटकर वहाँ पहुँच भी जायें तो कैसा उपहासास्पद होगा। टेक की तुकें मिलें तो कोई हर्ज नहीं, उससे गीत में ऐकिकता (Unity) और गठन बना रहता है, पर टेकों की दुहराहट गीतों में सन्निहित प्रगति का प्रभाव मार देती है।
गुरु थे, उनकी बात मैंने सुन ली, प्रतिवाद मैंने नहीं किया, किसी अंश में उनका कहना तर्कसंगत भी था। लेकिन अपने नये गीतों को मैं सीधी रेखा मानने को तैयार नहीं था। टेक को मैं केन्द्र-बिन्दु मानता हूँ। वहाँ से चलकर परिधि को एक बिन्दु पर छू लिया और फिर केन्द्र बिन्दु पर लौट आये और फिर चलकर परिधि को दूसरी जगह पर छुआ, इस प्रकार चार-पाँच स्टेंज़ा में चार-पाँच बार परिधि छू ली, किन्तु अलग-अलग बिन्दुओं पर। यहाँ प्रगति है, क्रम है, पर एक वृत्त की परिधि पर। मेरी ऐसी धारणा है, गीत बिना एक भाव-जगत् को वृत्तबद्ध किये नहीं लिखा जा सकता। अन्य स्फुट कविताओं के लिए सीधी रेखा का रूपक अधिक उपयुक्त होगा। झा साहब को आश्चर्य था कि दो वर्षों के अन्दर इतनी बड़ी आलोचनात्मक थीसिस लिखने के बावजूद मैंने सौ से ऊपर कविताएँ कैसे लिखी थीं। उनका अन्तिम रिमार्क था, 'दि पोएट इज इनकरिजिबिल इन यू' (कविता तुम्हारा पिण्ड नहीं छोड़ती)।
रात बहुत हो गयी थी। न जाने किस प्रसंग में उनके स्वास्थ्य पर बात चल पड़ी। वे अपनी व्यक्तिगत बातें किसी से नहीं कहते थे, पर उनके मुँह से निकले तीन-चार वाक्य रात-भर मेरे मन में घुमड़ते रहे-जिसे हार्ट अटैक हो जाये उसे किसी भी समय जाने के लिए तैयार रहना चाहिए...मृत्यु निकट आती है तो हर मनुष्य को उसका आभास हो जाता है... सफल-से-सफल व्यक्ति को भी जीवन अन्त में निराश और उदास ही छोड़ जाता है।
दूसरे दिन सुबह मैं उनसे विदा ले इलाहाबाद के लिए चल पड़ा। झा साहब के निराश और उदास होने का कारण था। विधुर एकाकीपन की परिणति जो होती है, उसके लिए वे तैयार थे, उसी के लिए वे बने थे, इसके अतिरिक्त और कुछ उनसे निभता भी नहीं। मेरा संकेत उसकी ओर नहीं है।
पश्चात्ताप का शब्द उनके कोश में नहीं था। बात यह थी कि जीवन-भर वे युनिवर्सिटी, शिक्षा, विद्यार्थियों के सम्पर्क में रहते थे। पिछले कुछ वर्षों में जब से वे पब्लिक सर्विस कमीशन के चेयरमैन रहे थे, तब से विद्यार्थियों का सजीव सम्पर्क उनसे छूट गया था। दफ्तरी जीवन में वे इस अभाव को बराबर महसूस करते रहे। फिर वे भारत के गिने-चुने शिक्षाविदों में थे; उन्हें शायद यह आशा थी कि स्वतन्त्रता मिलने पर भारत की सरकार उनके ज्ञान और अनुभव का कुछ उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में करेगी, परन्तु उनकी उपेक्षा की गयी। किसी ने शासन तन्त्र में इसका सुझाव दिया तो-अपने से वे सरकार के पास पहुँचने वाले थे नहीं-किसी बड़े नेता ने यह कहा कि 'उनमें कल्पना का अभाव है।' पता नहीं, जिनमें कल्पना का भाव समझा गया उन्होंने शिक्षा में कौन मौलिक क्रान्ति की।
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