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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


झा साहब से यह मेरी अन्तिम भेंट थी। कुछ ही महीनों बाद उनके देहावसान का दु:खद समाचार मिला। वे जान गये थे कि उनकी मृत्यु निकट है और वे इसके लिए तैयार भी थे। बाद को मुझको किसी ने बताया कि पिछली बार जब वे इलाहाबाद आये थे तो अपने शव-दाह के लिए कई मन चन्दन की लकड़ी भी चुपचाप साथ खरीदकर ले गये थे। उनके स्वभाव में अभिजात का जो सर्वविदित और सर्वत्र प्रकट संस्पर्श था, उसके अनुरूप तो यह था ही कि उनकी लाश साधारण लकड़ियों से नहीं, चन्दन की लकड़ियों से जलाई जाये, कुछ और भी था। उनके शत्रु भी शायद ही यह कह सकें कि उन्होंने अपने जीवन में जान-बूझकर किसी को भी हानि पहुँचाई थी-वे सम्भवतः नहीं चाहते थे कि जो उनका दाह-संस्कार करने के लिए आयें उन्हें उनकी जलती लाश की दुर्गन्ध भी लगे। उनका आभिजात्य उनके रहन-सहन में, बात-व्यवहार में, उनकी नैतिकता में, बौद्धिकता में सब जगह सक्रिय, समर्थ और प्रबल था और अन्त में वह करुण भी हो उठा था-अपने हाथों अपनी चिता की लकड़ी भी खरीदना। उस स्थिति में बस एक कदम पीछे।

अपने पर मैं ही रोता हूँ
मैं अपनी चिता सँजोता हूँ,
जल जाऊँगा अपने कर से रख अपने ऊपर अंगारे।
खिड़की से झाँक रहे तारे!

कलकत्ता-पटना में मुझे जो स्नेह, संवेदन, समादर मिला था उसके बाद इलाहाबाद लौटने पर अपने सहयोगियों से मिली परिचित उपेक्षा और ईष्या-द्वेष भरी दृष्टि मुझे अधिक खलने लगी थी-मैं सोचता मैंने इनका क्या बिगाड़ा है, इन्हें किस तरह हानि पहुँचाई है, किस तरह इनका अपमान किया है, किस तरह इन्हें चोट पहुंचाई है या इन्हें दुखी किया है जो मुझे ऐसे व्यवहार का अधिकारी माना जाता है।

जो मैंने किया था, वह तो सिर्फ इतना था कि मैं केम्ब्रिज से एक डिग्री लाया था जो प्राय: सहज प्राप्त न थी।

अगर मैं अपने देश की मनोवृत्ति समझता तो मुझे यह पूर्वाभास हो जाना चाहिए था कि मेरी यह लब्धि आसानी से लोगों के गले न उतर सकेगी। तब उनका व्यवहार मुझे अप्रत्याशित न लगता।

क्या यह सच नहीं है कि ईर्ष्या पूर्व का नहीं तो भारत का अपना विशेष गुण है, जैसे फूट यहाँ का विशेष फल?

इंग्लैण्ड में किसी साधारण परिचित से भी अपनी किसी प्राप्ति, लब्धि या उपलब्धि का वर्णन करो तो उसके मुँह से निकलता है, 'हाउ नाइस!'--'क्या अच्छी बात है!' उसके मुख की प्रसन्नता यह व्यक्त करती है कि उसे आपके सुख, वृद्धि, समृद्धि में खुशी है। अपने देश में यह अनुभव असम्भव नहीं तो दुष्प्राप्य अवश्य है। आपकी बात सुनते ही लोगों की नसें खिंच जाती हैं, चेहरे उतर जाते हैं और एक औपचारिक दिखावे का जड़-प्रसन्न मुखौटा चढ़ाने का प्रयत्न प्रारम्भ हो जाता है। तुलसीदास खल की वन्दना करने चलते हैं तो सबसे पहले उनका ध्यान उसके इस अवगुण पर जाता है, जिसे वे कई तरह से कहते हैं, 'जे बिनु काज दाहिनेह बायें', 'उजरे हरष विषाद बसेरे', 'परहित घृत जिनके मन माखी', 'परहित हानि लाभ जिन्ह केरे', 'उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति'। नारदमोह प्रसंग में भी नारद के मुख से नारायण के लिए कहलाते हैं, पर सम्पदा सकहु नहिं देखी, तुम्हारे इरिषा कपट विशेषी'; रामराज्याभिषेक में देवताओं में विघ्न डालने पर वे उनके इसी अवगुण की ओर संकेत करते हैं, 'ऊँच निवास नीच करतूती, देखि न सकहिं पराई विभूती,' और भी कितनी जगहों पर उन्होंने इस ईर्ष्या का बड़े दर्द के साथ वर्णन किया है- उन्हें कम ईर्ष्या का सामना करना पड़ा होगा!

योरोप और भारत की मनोवृत्ति में अन्तर का कारण क्या है? हमारे जीवन का सर्वत्रव्यापी अभाव ही शायद कारण नहीं है-हाय, फलाँ को मिल गया, मैं टापता ही रह गया। ऐसी हालत में फलाँ के प्रति ईर्ष्या होना स्वाभाविक है। इस ईर्ष्या का डंक सौ गुना तीखा होगा, यदि देने वाला सकारण देता है और पाने वाला सयत्न पाता है। पश्चिमी जीवन में एक शब्द चलता है 'लक'। 'लक' का अर्थ उनका हिन्दी पर्याय देने से स्पष्ट न होगा। 'लक' का अर्थ समझना होगा। 'लक' स्वेच्छाचारी है, अंधा-बहरा है, पागल है, पागल नहीं है तो तर्क-परिचालित अथवा दायित्व-बद्ध तो हरगिज़ नहीं है। वह किसी को कुछ देता है तो किसी कारण नहीं, उसके किसी तप-साधन के फलस्वरूप नहीं। किसी को पश्चात्ताप करने की आवश्यकता नहीं कि उसने प्रयास किया, साधना की। लेकिन हमने तो 'भाग्य' को भी 'कर्म' कर डाला है-'करम फूट गया', 'करम में नहीं था'। किसी को कुछ मिले, कोई कुछ पाये तो हम उसे उसके कर्म का फल मानते हैं। कर्म देखकर दिया गया है, कर्म करके पाया है, और हाय, हम कर्म नहीं कर पाये, न पूर्व जन्म में, न इस जन्म में। यही 'हाय' हमारी ईर्ष्या बनती है क्योंकि यह हमको हीन, दोषी, कर्मकुण्ठित, प्रमादी, लापरवाह होने का दुःखद और दाहक आत्मबोध कराती है। जाति-मनोवैज्ञानिक शायद और भी कारण सोच सकते हो।

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