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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


सत्रांत पर जब युनिवर्सिटी गरमी की छुट्टियों के लिए बन्द हुई तो मैं तेजी और बच्चों को लेकर नेपाल चला गया और तभी लौटा तब युनिवर्सिटी खुलने को हुई।

मेरे मित्र श्री महाराज कृष्ण रसगोत्र, आई०एफ०एस०, उन दिनों नेपाल स्थित भारतीय राजदूतावास में सचिव के पद पर काम कर रहे थे। राजदूत थे श्री भगवान् सहाय, उनसे मेरा व्यक्तिगत परिचय नहीं था, पर उनके नाम-काम से मैं अपरिचित नहीं था, इलाहाबाद युनिवर्सिटी के पूर्व छात्र थे। और वे भी मेरे नाम-काम यानी मेरे कवि रूप से अपरिचित न थे।

रसगोत्र ने मुझे गरमी की छुट्टियाँ सपरिवार काठमाण्डू में बिताने को आमन्त्रित किया और मैंने उसे स्वीकार कर लिया। इलाहाबाद ने मेरे साथ जो व्यवहार किया था, उससे मेरे मन में उसके लिए इतनी वितृष्णा जग उठी थी कि इलाहाबाद से कहीं चले जाने की बात मेरे लिए एक बड़ी राहत-सी लगी। जब से मैं विदेश गया था, तेजी और बच्चे भी कहीं बाहर न गये थे। मुझे लगा, मेरी यात्रा उन लोगों के लिए भी सुखकर परिवर्तन सिद्ध होगी।

विद्यार्थी जीवन से मेरे मन में नेपाल के लिए कुतूहल था। नकशे पर भारत के उत्तर में कम चौडे ज्यादा लम्बे, इस देश को दिखाकर हमारे अध्यापक यह बताना न भूलते थे कि नेपाल एक स्वतन्त्र देश है और अपनी गुलामी के दिनों में यह कल्पना करने में मन में एक प्रकार का हर्ष होता था कि नेपाल में कुछ ऐसी शक्ति तो होगी, जब अपना लम्बा-चौड़ा देश अंग्रेज़ों से पराजित हो गया था, तब नेपाल ने आज़ादी का झंडा ऊँचा रखा था। घर-मोहल्लों में नेपाल की चर्चा चलने पर यह किंवदन्ती भी सुनाई देती थी कि पशुपतिनाथ के मन्दिर में पारस पत्थर है, जिसे छुलाने से लोहा सोना बन जाता है। यदा-कदा पशुपतिनाथ की तीर्थयात्रा से लौटे धर्मात्मा लोग अतिशयोक्तियों में वहाँ का वर्णन करते थे-नेपाल के राजा वास्तव में पशुपतिनाथ भगवान् हैं, राजा-राणा उनकी ओर से शासन करते हैं। भगवान् शासित देश कैसा होगा! तुलसीदास का राम-राज्य वर्णन कानों में ध्वनित-प्रतिध्वनित होने लगता। हमारी युनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के डॉ० ईश्वर प्रसाद को एक बार नेपाल बुलाया गया था, शायद वहाँ का इतिहास लिखने के लिए। लौटकर वे बड़े गर्व से कहते थे कि वहाँ पर हिन्दू राज्य है और गो-हत्या के लिए प्राणदण्ड का विधान है और इससे हमारी संस्कारी गो-भक्ति को सन्तोष की एक हल्की-सी थपकी लगती थी। वहाँ की ये कल्पित और तथ्यगत विशिष्टताएँ अब मेरे लिए अर्थहीन हो गयी थीं। नेपाल में राणाशाही अपदस्थ हो चुकी थी और प्रगतिशील राजा जनता द्वारा निर्वाचित मन्त्रियों की सहायता से शासन कर रहे थे। उन दिनों श्री मातृका प्रसाद कोइराला प्रधानमन्त्री थे। अभिनव नेपाल के लिए मेरे मन में कम कुतूहल नहीं था।

पटने तक रेल और वहाँ से हवाई जहाज़ से गया था। गोचर हवाई अड्डे पर (जहाँ गोचर भूमि थी, वहाँ अब हवाई अड्डा था, मध्ययुग से आधुनिक युग में पहुँचने का यह कम संकेतक था?) मुझे लेने को रसगोत्र आये थे। बोले, 'बच्चनजी, यहाँ प्रथा है, काठमाण्डू आने पर सबसे पहले लोग भगवान् पशुपतिनाथ के दरबार में हाज़िरी देते हैं।' चित्रों में देख रखने के कारण मन्दिर यथा प्रत्याशित लगा-स्थापत्य शैली नेपाल की अपनी, शेष सब कुछ भारतीय मन्दिरों जैसा, चारों ओर वही गाय, गोबर, गन्दगी, भिखमंगे, ढोंगी, जोगी, कोढ़ी, रोगी!-(मुक्तिप्रदाय भगवान् शंकर के सान्निध्य में देहत्यागार्थी मरणासन्न रोगियों के लिए मन्दिर में ही आवास व्यवस्था है-'अव्यवस्था' शब्द पर विद्रूप व्यंग्य करती हुई अव्यवस्था)। भूतनाथ, प्रेताधिपति, मरघटाधीश्वर का खुला दरबार है, यहाँ कुछ न कहिये।

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