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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


रसगोत्र ने हमें अपने साथ ठहराया। उनका मकान कमल पोखरी पर था-मकान क्या, महल, ऊँची दीवारों से घिरा, बीच में बड़ा-सा बाग, किनारे पर तैरने का तालाब, पानी भरने को कई पम्प लगे-बहुत दिनों से जैसे इस्तेमाल न किया गया हो-किसी भूतपूर्व राणा का निवास स्थान रहा होगा। रहते थे उसमें सिर्फ अकेले रसगोत्र, उन दिनों वे अविवाहित थे, सारे कमरे दरी-कालीन, दीवार-श्रृंगार-तस्वीर, शीशे, फर्नीचर युक्त प्रायः राणाशाही के समय के, पर सब रसगोत्र की सुरुचि से लगे-सजे। खास इमारत से अलग, निकट ही एक सर्व-सुविधायुक्त अतिथि गृह भी था। जब हम लोग पहुँचे तो रसगोत्र अतिथिगृह में चले गये और मुख्य इमारत हमें रहने को दे दी गयी-तेजी का कमरा अलग, मेरा अलग, बच्चों का अलग, फिर भी मकान में कई कमरे खाली। खाना बनाने को उनके पास एक गोवानीज कुक था, कई नौकर ऊपर का काम करने को।

भगवान सहायजी को अधिक निकटता से देखने का अवसर मिला। उनके धीमान, कुशल, सफल, अनुभवी अधिकारी होने की बात मैंने बहुतों से सुन रखी थी। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वे अच्छे कलाकार भी हैं। राजदूतावास में एक कमरा रंग-फलक-तूली आदि चित्रकला के उपकरणों से भरा था। पेरिस प्लास्टर से वे मूर्तियाँ भी बनाते थे। नेपाली प्राकृतिक दृश्यों और जन-जीवन के उन्होंने कई सुन्दर और सजीव तैलचित्र बनाये थे। साहित्य के प्रति भी उनकी खरी रुचि थी। उनका मूल्यांकन दूसरों को सम्मति-आलोचना से अप्रभावित स्वतन्त्र हुआ करता था। भगवती चरण वर्मा उनके प्रिय उपन्यासकार थे, कविताएँ मेरी उन्हें अधिक पसन्द थीं। उनकी पत्नी श्रीमती विद्या देवी तो भावुकता की मूर्ति ही थीं। मेरे 'निशा-निमन्त्रण' के गीत उन्हें विशेष प्रिय थे। मुझसे सुनी तो किसी-किसी पर बरबस उनके मुख से सीत्कार निकल जाती।

नेपाल हम छुट्टी मनाने गये थे और रसगोत्र ने हमें अपनी तरह से छुट्टी मनाने की पूरी छूट दे दी। वे तो सुबह तैयार होकर दफ्तर चले जाते और लंच के समय आते, पर वे इस बात का आग्रह न करते कि हम उनके साथ लंच लें, वे लंच लेकर फिर दफ्तर भागते और शाम को लौटते। हमारे लिए आज़ादी थी कि जब हमारा जी चाहे उठे, जब चाहें नहायें, धोयें, जब चाहें खाना खायें, सोयें, बैठें, घूमने जायें। वक्त से बँधकर चलने वालों के लिए शायद सबसे बड़ी छुट्टी यह है कि उन्हें वक्त-बन्धन से एकदम मुक्त कर दिया जाये। हम सब वर्षों से वक्त से जकड़े थे, हमने अपनी आज़ादी का खुलकर सुख लिया और असली अर्थों में छुट्टी मनाई।

हमारा अधिकतम समय काठमाण्ड में बीता. पर हर सप्ताहांत पर हम लोग कार से नेपाल के आन्तरिक अंचलों को भी देखने जाते, जहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य के अलावा बहुत कुछ अद्भुत-आकर्षक होता। नेपाल के चप्पे-चप्पे से कथायें-वार्तायें, इतिहास, देवकथायें, विश्वास जुड़े हैं और वहाँ का जन-जीवन उनसे कितना बल-संबल, कितनी प्रेरणा, कितना मनोविनोद पाता है, कौन जान सकता है ! किसी बड़े इतिहासकार का कहना है कि छोटे-छोटे स्थानों से जुड़ी ये जनश्रुतियाँ उस देशभक्ति की मूल हैं, जिसके बल पर बड़े-बड़े युद्ध जीते जाते हैं। सिपाही अमूर्त देश के लिए नहीं लड़ता; वह लड़ता है अपने गांव के उस टाले या बावड़ा के लिए जिससे किसी प्रेत या पहलवान की कथा जुड़ी है और जिसने उसके बचपन से उसे उस कथा-सजीव भूमि से बाँधा है। क्या इन्हीं के बल से तो नहीं नेपाल सदा अपराजेय रहा है?

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