जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
काठमाण्डू मुझे मध्ययुगीन वातावरण में पलती धर्माभासी नगरी लगीमहायानी बौद्ध, तान्त्रिक, शाक्त, पौराणिक विश्वासों, अंधविश्वासों, मिथ्यांध विश्वासों में विजड़ित-इतस्ततः नेपाल से बाहर अंग्रेज़ी पढ़े नवयुवकों में आधुनिकता की आकाशी वायवी चेतना जिससे सामान्य जन-जीवन अछूता--असंपृक्त। काठमाण्डू में ऐसा कम नहीं, जो आँखों के आगे आकर अपनी आधुनिकता का उद्घोष करे, पर यह आधुनिकता उस मुखौटे से कुछ अधिक नहीं जिसे अपने चेहरे पर लगाकर मध्य युगीनता ही छद्मवेश में जीने का उपक्रम कर रही हो। ऐतिहासिक प्रक्रिया ने भारतवर्ष में मध्य युगीनता को आधुनिकता स्वीकार करने के लिए जिस प्रकार तैयार और विवश किया है उस प्रकार नेपाल में नहीं। मैं सोचता हूँ कि अगर हिन्दस्तान पर मुसलमानों का आक्रमण और हिन्दुस्तान में इस्लाम का आगमन न होता, अगर भारत पर अंग्रेजों की हुकूमत और भारत में पश्चिमी सभ्यता की पैठ न होती तो हम अपने को आज नेपाल की-सी सामाजिक स्थिति में पाते। इस्लाम के बिना कबीर, नानक, तुकाराम, नामदेव यहाँ तक कि तुलसीदास की भी- पश्चिमी सभ्यता के बगैर राजा राममोहनराय, दयानन्द, विवेकानन्द, रवीन्द्र, अरविन्द, गाँधी की कल्पना मैं नहीं कर पाता।
नेपाल में मुझे कवि रूप में जानने वाले कम नहीं थे। बहुत-से लोग मेरे मुख से मेरी कविताएँ सुनने को उत्सुक थे। नेपाल में मेरे प्रवासकाल में कई बार कई जगहों पर कवि-सम्मेलनों और गोष्ठियों का आयोजन किया गया, जिनमें नेपाली कवियों ने भी भाग लिया। नेपाल के जिन कवियों के नाम मुझे अब तक स्मरण हैं, वे थे श्री बालकृष्ण सम, श्री देव कोटा, श्री धिमीरे, श्री केदारमान व्यथित और श्री भवानी भिक्षु। समजी नेपाली के नाट्यकार और अभिनेता हैं-उन्होंने अपने कई नाटकों के अंश अभिनेता की मुद्रा में सुनाये, जो बड़े प्रभावकारी थे। जिस कवि से मैं सबसे अधिक प्रभावित हुआ, वे थे श्री देव कोटा- शरीर से हृष्ट-पुष्ट, कद से ऊँचे, उनकी कविताओं की आधुनिकता ऐसी कि पश्चिम की आधुनिक कविताओं से होड़ ले, नेपाली में उनके प्रयोग एकदम नये, स्वर में प्रखरता, आक्रोश, व्यग्य। राजनीति में भी दखल रखते थे। बाद को वे किसी विभाग के मन्त्री के रूप में नेपाल-शासन से सम्बद्ध हुए। पीते डटकर थे--जैसे नेपाल में सब उच्चवर्गीयउनके मुख से लगी सिगरेटों की श्रृंखला टूटती ही न थी-जवानी में ही उन्हें कैंसर हो गया, जो असाध्य सिद्ध हुआ, और पारिवारिक प्रथा के अनुसार अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद, सम्भवतः उनकी सहमति से ही, उन्हें पशुपतिनाथ मन्दिर में डाल दिया गया, जहाँ उनकी असमय मृत्यु हुई।
देव कोटा के बिल्कुल विपरीत थे श्री धिमीरे-दुबले-पतले, मझोले कद के, मध्य वित्त परिवारी, वेशभूषा से ठेठ नेपाली, स्वभाव से बालकों जैसे, नेपाली लोक धुनों में गीत लिखते थे. सस्वर पढते थे, गीत उनके प्राकतिक शोभा और पहाडी ग्रामीण जीवन से सम्बद्ध। जैसे बच्चे आपस में मिलते ही कोई खेल शुरू कर देते हैं वैसे ही वे बातें करते-करते कोई गीत सुनाने लगते, सुनाने को भी कहते और विभोर होकर सुनते, मानो उनका अंग-अंग काव्य श्रवण कर रहा हो।
'भिक्षु' हिन्दी-छायावाद से प्रभावित थे, 'व्यथित' प्रगतिवाद से। भिक्षु जैसे छायावादी प्रतिक्रिया से, कभी-कभी घोर यथार्थ की ओर झुक जाते थे। उनकी एक कविता 'मेहतरानी' पर थी। नेपाली में शीर्षक कुछ और था। 'व्यथित' खुलकर न कह सकने की स्थिति में व्यंग्य का आश्रय लेते थे।
कहीं किसी शाम की गोष्ठी की भी मुझे स्मृति है, जिसमें श्री रेगमी और श्री टंका प्रसाद उपस्थित थे-किसी समय शासन से शायद मन्त्री या उपमन्त्री के रूप में सम्बद्ध। दोनों ही राणाशाही के समय अपने क्रान्तिकारी विचारों के कारण दसदस बरस जेलों में रहे थे। उनके कई साथियों को प्राणदण्ड मिला था। टंका प्रसादजी ब्राह्मण होने के कारण फाँसी से बच गये थे। उन्होंने ही मुझे बताया था कि कारावास की यह लम्बी अवधि उन लोगों ने 'मधुशाला', 'मधुबाला', 'निशा निमन्त्रण', 'एकान्त संगीत' पढ़-पढ़कर काटी थी।
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