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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


मेरे काव्य-पाठ की कुछ विशेष बैठकें रसगोत्र ने अपने घर पर आयोजित की थीं। ऐसी बैठकें प्राय: रात को भोजनोपरान्त आरम्भ होती और सुबह तक चली, लोग जब विदा होते, प्रभात की चिड़ियाँ बोलने लगी। रसगोत्र बड़े कल्पनाशील हैं, स्वयं भी जो कवि हैं, बाद को उनकी कविताओं का एक संग्रह 'दो परतें' के नाम से प्रकाशित हुआ था, काव्य-परख में भी उनकी पैठ गहरी है, अंग्रेज़ी पत्रपत्रिकाओं में हिन्दी कविता पर उनके लेख अक्सर प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने एक रात एक ऐसे काव्य-पाठ का आयोजन किया जैसा मेरे जीवन में न कभी पहले हुआ था न बाद को। उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि 'निशा निमन्त्रण' के एक सौ गीत, सन्ध्या से लेकर प्रभात तक के, मैं एक रात एक साथ सुनाऊँ,

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।
हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं-

यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है।

भीगी रात विदा अब होती।
हाथ बढ़ा सूरज किरणों के
पोंछ रहा आँसू सुमनों के,
अपने गीले पंख सुखाते तरु पर बैठ कपोत-कपोती।

तक के कल्पना-विनिर्मित वातावरण में।

कविता में खरी रुचि रखने वाले 20-25 लोगों को उन्होंने आमन्त्रित किया था; मुझे याद है, उसमें श्रीमती और श्री भगवान सहायजी भी उपस्थिति थे। मेरे मन पर उस रात का काव्य-पाठ बहुत भारी पड़ा था, पर कलानुभूति का यही भार तो जग-जीवनकाल के भार को हल्का भी करता है। श्रोताओं पर क्या बीती, वे ही जानें, बहुत-से चुपचाप उठे और चले गये थे, न जाने किन भावनाओं में डूबे; मेरे प्रति धन्यवाद उन्होंने कई दिन के बाद व्यक्त किया था।

नेपाल के अपने प्रेमियों, मित्रों, प्रशंसकों के बीच समय बड़ी जल्दी बीत रहा था। युनिवर्सिटी खुलने के दिन निकट आने लगे। मुझे इलाहाबाद लौटना ही था। पहले मैं कहीं भी जाता, थोड़े समय के लिए या अधिक समय के लिए, इलाहाबाद लौटने की मेरे मन में ललक होती थी। अब मैं इलाहाबाद लौटने में डर रहा था। युनिवर्सिटी मुझे काटने लगी थी।

जुलाई में युनिवर्सिटी खुल गयी और वही सत्र का रूटीनी जीवन आरम्भ हुआ।

जुलाई में नेहरूजी इलाहाबाद आये। मुझे नहीं याद कि वर्ष में कभी किसी विषय पर मेरा-उनका पत्राचार हुआ।

वे आये तो एक शाम उन्होंने मुझे चाय पर बुलाया। निमन्त्रण-पत्र विभाग में ही आ गया था। प्रधानमन्त्री द्वारा स्मरण किया जाना, कोई साधारण बात तो न थी, मेरे सहयोगियों की प्रतिक्रिया की कल्पना आप ही करें। श्री पी० डी० टंडन, इलाहाबाद के प्रसिद्ध पत्रकार भी उस समय विभाग में किसी प्रसंग में उपस्थित थे। उन्होंने निमन्त्रण-पत्र देखकर कहा, 'बस, अब नेहरूजी तुम्हें दिल्ली ले गये।' उनकी भविष्यवाणी सच ही निकली। वे नेहरूजी से नि:संकोच मिलने वालों में थे, सम्भव है, नेहरूजी ने जो बातें मुझसे कहीं, उनका कुछ संकेत उन्हें दे चुके हों।

नेहरूजी ने मेरी स्थिति के बारे में पूछा तो मुझे कहना ही था कि मैं जहाँ पिछली जुलाई में था, उसी जगह पर अब भी हूँ-लेक्चर ग्रेड के अधिकतम वेतन पर मैं पहुँच गया था, यानी 500/-की सीमा पर, और भविष्य में किसी वृद्धि की सम्भावना नहीं थी।

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