लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

201 पाठक हैं

आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


इसमें कोई सन्देह नहीं कि विभाग में सबसे अधिक रोचक व्यक्तित्व 'फ़िराक' साहब का था। उस समय भी वे उर्दू कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे, और अंग्रेज़ी में उनकी कुशाग्रता (ब्रिलिएंस) की प्रसिद्धि उनके विद्यार्थी जीवन से जुड़ी थी। ऐसी कथा प्रचलित थी कि पण्डित अमरनाथ झा और 'फ़िराक' साहब बी० ए० में सहपाठी थे। साथ ही परीक्षा देते तो प्रथम स्थान निश्चय 'फ़िराक' साहब को मिलता। इसलिए पण्डित अमरनाथ झा के पिता पण्डित गंगानाथ झा ने-जो उस समय वाइस चांसलर थे-'फ़िराक' साहब को उस वर्ष ड्राप करने को कहा, और वे मान गये। ड्राप तो वे उस वर्ष कर गये थे, पर कारण कोई उनका निजी और पारिवारिक था। मेरे लिए हिन्दी के कवि और अंग्रेज़ी के अध्यापक में जो विरोध था उसमें ‘फ़िराक' साहब ने सन्तुलन प्राप्त कर लिया था। मेरी ऐसी धारणा है कि 'फ़िराक' साहब जीविका कमाने के लिए युनिवर्सिटी में लेक्चरर थे, पर अपने को मुख्य रूप से उन्होंने उर्दू शायरी को दे रखा था। आगे चलकर उन्हें अपने काव्य-संग्रह 'गले-नगमा' पर भारतीय ज्ञानपीठ परस्कार मिला। उनमें जिस कोटि की प्रतिभा थी, उसके एक बहुत छोटे अंश से वे अध्यापन का कार्य सम्पादित कर सकते थेबी० ए० के ऊपर पढ़ाने को उन्हें शायद ही कभी मिला-शेष उनके कवि को समर्पित था, जिसे उन्होंने केवल अपनी अनुभूतियों अथवा भावनाओं से ही नहीं, अपने वैविध्यपूर्ण अध्ययन, चिन्तन-मनन और अभ्यास से भी पुष्ट और सुविकसित किया था। प्रतिभा प्रायः असन्तुलन और किसी-न-किसी प्रकार के विकार का शिकार होती है, और 'फ़िराक' उनसे मुक्त नहीं थे।

'फ़िराक' एक खास अर्थ में चिन्तक थे, पर उनका चिन्तन अंग्रेजी साहित्य या सामान्य रूप से साहित्य, भाषा और कविता की समस्याओं तक सीमित न था। जो भी समय और संसार को उद्वेलित करता था उस पर 'फ़िराक' साहब सोचते और अपनी अलग राय रखते थे, उस पर चर्चा करना चाहते थे और अपनी राय दूसरों को मनवाने के आग्रही भी थे, चाहे वह सही हो चाहे गलत। विभाग में जितनी बातें वे करते थे, उतनी कोई और नहीं करता था। वे बातें तर्क से करते, जोशोखरोश से करते, व्यंग्य-विनोद से करते, और कभी-कभी मुँहफट भी हो जाते। उनका चेहरा, उनका माथा, भौंहें, आँखें, नाक, होंठ, मुँह-सब बड़े ही अभिव्यंजक थे। वे उन्हें खींच, तान, मोड़, मरोड़, उठा, ऐंठ, खोल-मूंद जितनी मुद्राएँ बना सकते थे उन्हें देखकर चतुर-से-चतुर अभिनेता को उनसे ईर्ष्या होती। उनका दिमाग गम्भीर-सेगम्भीर कविताओं, सूक्तियों से लेकर हल्के-फुल्के और अश्लील से अश्लील चुटकुलों का खज़ाना था। उनकी बातों को सुनने में मज़ा आता था, भले ही उनसे सहमत हुआ जा सके या न हुआ जा सके। विभाग में वे तब तक बैठे रहते जब तक कोई भी उनसे बात करने को मिल सकता।

मझोला शरीर था उनका, शेरवानी के साथ कभी चूड़ीदार और कभी ढीला पाजामा पहनते थे, उन्हें सूट में देखने की कोई तस्वीर मेरी आँखों में नहीं, शौकिया छड़ी लेकर चलते थे, एक हाथ पर टांगे, टेकते नहीं। उम्र के साथ अपने कपड़ों के प्रति वे लापरवाह होते गये थे। बैंक रोड-स्थित युनिवर्सिटी बंगले में रहते थे और पैदल युनिवर्सिटी आते थे, पिछवाड़े के छोटे रास्ते से; देर हो गयी होती तो लॉन पार कर क्लास में पहुँचते और किसी चपरासी या लड़के से हाज़िरी का रजिस्टर मँगा लेते। घर लौटते भी वैसे ही खरामा-खरामा, जनवासे की चाल से-तेज़ी किसी तरह की उनमें देखी जाती थी तो उनकी ज़बान में।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai