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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


होस्टलों में यदा-कदा सामयिक विषयों पर उनके व्याख्यान होते-प्रवाहपूर्ण अंग्रेज़ी बोलते थे। मुशायरों में तो उनकी धूम ही रहती थी-हाँ, कभी-कभी पीकर आते थे तो कुछ बदमज़गी भी पैदा कर देते थे।

उनकी बहुत-सी बातों से हमराय न हो सकने और कुछ को नापसन्द करने पर भी कुल मिलाकर मुझे उनका व्यक्तित्व आकर्षक लगता था। आज भी अगर मेरा जाना इलाहाबाद हो तो सबसे पहले मैं उनसे मिलना चाहूँगा, और अगर उनको भी फुरसत हो तो अपना सबसे ज़्यादा वक्त उनकी सोहबत में गुज़ारना चाहूँगा।

उम्र में 'फ़िराक' साहब से कुछ छोटे थे मि० बेनी सिमलाई। बंगाली ईसाई थे। युनिवर्सिटी में आने के पूर्व वे ईविंग क्रिश्चियन कॉलेज में अध्यापक थे। वे इलाहाबाद युनिवर्सिटी के स्नातक नहीं थे-दुबले, पतले, मझोले कद के, फुर्तीले, हँसमुख, मिलनसार-पाइप पीते थे। यदा-कदा हिन्दुस्तानी बोलने का प्रयत्न करते थे, बंगाली जिस तरह हिन्दुस्तानी उच्चारण और ऐंग्लो इण्डियन जिस तरह हिन्दुस्तानी व्याकरण की रेढ़ मारते हैं उसका मिला-जुला नमूना पेश करते हुए। 'फ़िराक' साहब जब कभी आवेश में आ जाते तब सिमलाई ही किसी हल्की-फुल्की बात से उनको समस्थिति में लाते। उनका एक छोटा-सा सिद्धान्त था-जीवन के लिए निश्चय बहुत उपयोगी और लाभकारी-कि गम्भीर-से-गम्भीर बात का कोई एक पक्ष ऐसा होता है जिस पर मुसकराया या खुलकर हँसा जा सके। और सिमलाई की दृष्टि अपने और दूसरों के मामलों में भी इस पक्ष को सहज पकड़ लेती थी। वे पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच एक प्रकार के सेतु थे।

मि० के० के० मेहरोत्रा से (मेहता, मेहतर-सम्मानसूचक अर्थ में भी प्रयुक्त होता है मेहरा. महरा.मेहरोत्रा. मलहोत्रा आदि शब्द और उनके पारस्परिक सम्बन किसी जाति का कैसा विचित्र इतिहास छिपाये होंगे, इसे शायद कोई भाषाविद ही कभी खोल सके) विभाग के अध्यापकों की नयी पीढ़ी की शुरुआत होती थी। और उनके बाद आने वाले सभी लेक्चरर-मि० भवानी शंकर, मि० रवीन्द्रनाथ देख मि० प्रकाश चन्द्र गुप्त, मि० हरिश्चन्द्र, डॉ० सूरज प्रसाद खत्री-सभी पण्डित अमरनाथ झा, पण्डित शिवाधार पाण्डेय और मि० एस० सी० देब के पढ़ाये थे। पुरानी और नयी पीढ़ी का संघर्ष न अभी आरम्भ हुआ था और न यह शब्दावली कहीं सुनाई पड़ती थी। पुराने लोग अपने अनुभव, अभ्यास से नहीं तो पुरानेपन के कारण ही अधिक योग्य और आदरास्पद माने जाते थे। वही एम० ए० क्लॉस पढ़ाते थे, पढ़ाने के अधिकारी भी समुझे जाते थे, और नया कोई उनके इस विशेषाधिकार को चुनौती न देता था। बहुत वर्षों तक नयी पीढ़ी में से केवल मि० मेहरोत्रा को एम० ए० के छात्रों को माडर्न पोयट्री पढ़ाने का काम दिया जाता था। जूनियर लोगों को भी एम० ए० क्लास पढ़ाने के साथ सम्बद्ध किया जाये, यह माँग बहुत बाद को स्वीकार की गयी।

एक बड़ी मनोरंजक बात याद आयो। जूनियर लोगों को पहले परीक्षा में Invigilation (निरीक्षण) का काम भी नहीं दिया जाता था। तब यह बड़ा दायित्वपूर्ण कार्य समझा जाता था, शायद इस कारण कि उसके लिए कुछ Honorarium (परिश्रमिक) मिला करता था। जब आनरेरियम बन्द कर दिया गया तो उसकी दायित्वपूर्णता किसी तर्क से समाप्त कर दी गयी, और जूनियर लोग भी इस काम में शामिल किये जाने लगे और बाद को तो सीनियर लोग इस काम से कतराने लगे-अधिक उपयोगी कामों में लग सकने वाला उनका समय क्यों बेकार बर्बाद किया जाये। एम०ए० को पढ़ाने के दायित्वपूर्ण काम में हाथ बँटाने के लिए वेतन में हिस्सा देने या वेतन बढ़ाने की बात होती तो निश्चय सीनियर लोग इसका अधिक विरोध करते और जूनियरों में भी परस्पर प्रतिद्वन्द्विता छिड़ जाती। आर्थिक लोभ-लाभ अभावग्रस्त देश में अकादमिक नीति-नैतिकता को भी परिचालित करते हैं यह कटु तथा अप्रिय सत्य हमें स्वीकार ही करना पड़ेगा।

मि० मेहरोत्रा का पूरा नाम था केवल कृष्ण मेहरोत्रा। अपने निकटवर्ती मित्रों में वे एक घरेलू नाम से भी पुकारे जाते थे-केली के। मेहरोत्रा साहब का कद लम्बा न था, पर दुबले-पतले होने के कारण वे कुछ लम्बे होने का आभास देते थे, अंग्रेज़ी कपड़े उन पर सहज सजते थे-देसी पोशाक में कभी उन्हें देखने की याद नहीं-बदन से नाज़ुक थे, बोलते थे धीमी आवाज़ से और संभल-संभलकर। अपने विद्यार्थी जीवन में होस्टल के ड्रामों में वे स्त्रियों का पार्ट करते थे। उच्च श्रेणी में एम०ए० करने के बाद ऑक्सफोर्ड में दो वर्ष रहकर उन्होंने बी०लिट० की उपाधि प्राप्त की थी, वहीं एक अंग्रेज़ लड़की से शादी कर ली थी, और लौटने पर उनकी नियुक्ति अंग्रेज़ी विभाग में लेक्चरर के रूप में हो गयी थी। झा साहब के First favourite (सर्वप्रिय छात्र) थे, अच्छा और मेहनत से पढ़ाने की उनकी प्रसिद्धि थी, इलाहाबाद युनिवर्सिटी मैगज़ीन का सम्पादन भी करते थे।

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