जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
घर के सम्पन्न थे। हेस्टिग्स रोड पर उन्होंने एक बड़ा-सा बंगला खरीद लिया था जिसमें वे रहते थे। पत्नी उनकी विलायती, शासक वर्ग की होकर भी सरल, विनम्र और सुघड़ थी, उनके तीन सुन्दर बेटियाँ थीं, पर भगवान् किसी के चारों कोने नहीं भरता। मेहरोत्रा साहब का स्वास्थ्य उन्हें दगा दे गया। उनके एक पाँव में दर्द शुरू हुआ, फिर उस पर लकवे का आक्रमण हुआ और धीरे-धीरे वह बेकार हो गया। पर अपने मर्ज़ के साथ जो मर्दानावार और बहादुराना लड़ाई उन्होंने लड़ी उसने साबित कर दिया कि यह नज़ाकत का पुतला किस ठोस और मज़बूत धातु का बना था। जब किसी तरह की दवादरमत से फायदा न हुआ तो उन्होंने साहस के साथ अपने रोग को स्वीकार कर लिया। जब तक छड़ी के सहारे चल सके बराबर चलते रहे, बाद को उन्होंने ह्वील चेयर की शरण ली, एक नौकर की मदद से हील चेयर को सीढ़ियों पर भी चढ़ाते, बाद में तो उनका नौकर उनको गोद में उठाकर ह्वील चेयर पर बिठा देता, पर वे बराबर युनिवर्सिटी आते रहे, बराबर क्लास लेते रहे. मौके-मौके पर पार्टियों, ऐट होम, उत्सवों, शादियों में भी शरीक होते। अन्त में तो उनकी आवाज़ भी जाती रही पर वे माइक के सहारे व्याख्यान देते रहे, लेक्चरर से रीडर और विभागाध्यक्ष हो, सेवा की पूरी अवधि तक काम करके रिटायर हुए। गज़ब की जिजीविषा रही होगी उनमें जो उन्हें कर्तव्य-पालन तक सीमित न रख अक्सर सामाजिक और मनोरंजक अवसरों पर भी उपस्थित रहने को प्रेरित करती रही। ऐसा कष्ट जो समस्त सक्रिय जीवन को समाप्त कर दे-किसी समय वे टेनिस के अच्छे खिलाड़ी थे-और प्रतिपल, प्रतिपग दूसरों पर निर्भर रहने को विवश करे, किसी को भी सदा के लिए चिन्तित, उदास, चिड़चिड़ा बना सकता था। मगर, शाबाश मेहरोत्रा साहब को! उन्होंने किसी भी क्षण माथे पर शिकन न आने दी। इसके विपरीत अपनी सारी तकलीफ, सारी असुविधाओं के बीच उन्होंने अपने चेहरे पर एक विनोद-भरी मसकान कायम रखी। दांतों से होंठों को दबाकर बहुत-से लोग अपने दर्द को सह लेते हैं, अपनी मुसीबतों को झेल जाते हैं और उनमें कहीं मैं अपना नाम भी लिखाना चाहूँगा-पर जो हँसते हुए अपने दुर्भाग्य का स्वागत करते हैं, वे बिरले होते हैं। मेहरोत्रा साहब ऐसों में ही थे। अब तो वे स्वर्गवासी हो चुके हैं, पर उनकी मुसकान को, जिससे उनके जीवनकाल में भी मुझे बड़ी स्पर्धा थी, मेरी स्मृति ने बड़े आदर से संजो रखा है।
मि० भवानी शंकर की याद आते ही उनका लम्बा कद, लमछर चेहरा लम्बी-पतली नाक, भरे-भरे होंठ, बड़ी-बड़ी आँखें, चौड़ा माथा आँखों के सामने आ जाता है। उनको किसी भी मापदण्ड से सुन्दर ही कहा जा सकता था-कपड़ों में हमेशा टिप-टॉप,शेरवानी के साथ चूड़ीदार पाजामा और अंग्रेज़ी सूट दोनों उन पर फबते थे-आभिजात्यों के खेल गाल्फ खेलने के शौकीन थे। उनमें एक और चीज़ थी-यौनाकर्षण, जिसे अंग्रेज़ी में 'सेक्स-अपील' कहते हैं, और उसके प्रति वे स्वयं सचेत थे। यौन-मनोविज्ञान के थोड़े-बहुत अध्ययन से मैंने जाना है कि सेक्स अपील रखने वाला आदमी बुद्धि से कुशाग्र, व्यवहार में शालीन, वृत्ति से बहिर्मुखी सुरुचि-सम्पन्न, उदार और तबियतदार होता है- भवानी शंकर में ये सारे गुण थे। वे दक्ष अध्यापक थे-कविवर नरेन्द्र शर्मा उनके विद्यार्थी रह चुके थे, बाद को उनके निकटस्थ मित्र; आधुनिक अंग्रेज़ी कवियों पर उन्होंने एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी थी। युनिवर्सिटी ऑफिसर्स ट्रेनिंग कोर में भी वे मेरे वरिष्ठ सहयोगी थे-वे कैप्टन थे, मैं लेफ्टिनेंट था। उन्हें कैम्प में देखने से ऐसा लगता, जैसे सारी ज़िन्दगी उन्होंने फौज में ही बिताई हो-शिष्टता की सीमा में पीते भी थे। दूसरी तरफ हिन्दी कविता से उन्हें बड़ा प्रेम था, जिसे नरेन्द्र के सम्पर्क ने और बढ़ाया था और जिससे वे मेरी ओर भी अधिक आकृष्ट हुए थे। पंतजी उनके मित्रों में थे; झा साहब के वे कृपापात्र थे, फ्राइडे क्लब के सदस्य। क्लब में, ऐसा सुना था, वे मास्टर ऑफ सेरीमनीज़ थे, जो सम्भवत: वहाँ के सेक्रेटरी का पद था। बहुत-सी कड़ियाँ र्थी, जिन्होंने उनको-मुझको निकटता से जोड़ दिया था।
आदमी वे हिम्मतवर थे, जो करते थे खले-खज़ाना. विवाहित थे, एक बेटा था, पर उनकी एक प्रेयसी भी थी, जिसको वे साथ ही रखते थे, साथ उसके सब जगह आते-जाते थे, विवाहिता को भी साथ लिये। उनका एक खतरनाक मकूला था-नारी उसकी है जो उसे आकर्षित कर सके। और इसके अपवाद में उन्होंने एक परम आत्मीय मित्र की पत्नी को भी न रखा। मित्र की पत्नी भवानी शंकर की ओर इतनी आकर्षित हई कि उनके घर ही जा बैठी, और बाद को उन्होंने उसे पत्नी रूप ‘में स्वीकार किया, विधिवत् विवाह किया था या नहीं, यह मैं नहीं जानता, पर उससे कोई सन्तान हुई थी, ऐसा सुना था। वाह्यारोपित नैतिकता के विश्वविद्यालयी वातावरण में अपने खुले व्यवहार को खपता न देखकर उन्होंने युनिवर्सिटी से इस्तीफा दे दिया, फौजी शिक्षा शाखा में नौकरी कर ली, जहाँ कुछ ही वर्षों में वे सर्वोच्च पद पर पहँच गये, 1952 में भीषण रूप से बीमार पड़े, इलाज के लिए बम्बई भेजे गये, जहाँ नरेन्द्र ने मुझे बताया, जो उनकी अन्तिम घड़ियों में उनके साथ थे, उन्होंने निर्भय निराकुल मृत्यु का आलिंगन किया। भवानी शंकर सौन्दर्यप्रेमी, साहित्यानुरागी, अनुशासनबद्ध सैनिक और व्यवहार-शिष्ट नागरिक के अद्भुत सम्मिश्रण थे। उनसे ईर्ष्या की जा सकती थी, उनसे दुश्मनी नहीं रखी जा सकती थी-
'वो सूरतें, इलाही, किस देस बसतियाँ हैं,
अब जिनके देखने को आँखें तरसतियाँ हैं।'
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