जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
मि० रवीन्द्रनाथ देब-विभागाध्यक्ष प्रो० एस० सी० देब के छोटे भाई-और मि० प्रकाशचन्द्र गुप्त से मेरी निकटता थी-गुप्तजी से कुछ फासला रखते हुए। दोनों मेरे बी० ए० के सहपाठी थे-एम० ए० (प्रीवियस) के भी। देब ने अंग्रेज़ी साहित्य के अतिरिक्त चित्रकला में विशेष रुचि ली थी। गहरे रंगों की लयात्मक वर्तुल शैली उनकी अपनी ईजाद थी, जिसमें उन्होंने कई भव्य मौलिक चित्र बनाये थे। चित्रकला के विषय में मैं अधिकारपूर्वक कुछ नहीं कह सकता, पर मेरी ऐसी धारणा है कि यह पिकासो की कोण-प्रक्षेपी घनाकृति शैली की भारतीय प्रतिक्रिया थी। भारतीय जीवन अब भी लयबद्ध है, कालान्तर में उसे लय बदलनी पड़ सकती है, पर तोड़ देने से उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा, कारण यह है कि भारतीय चिन्तन में लय का उतना ही अर्थ नहीं है, जितना 'रिद्म' से पश्चिम ने समझा है। यदि समय से देब के चित्रों की प्रदर्शनी प्रसिद्ध नगरों में आयोजित की जा सकती तो उन्हें अच्छी ख्याति मिलनी थी। मुझे खेद है कि भारतीय चित्रकला की दुनिया में उनको कोई विशेष स्थान नहीं दिया गया। दुर्भाग्य यह है कि हमारा सारा दृष्टिकोण, हमारी सारी आलोचना, चाहे वह चित्रकला की हो, चाहे साहित्य की-- भारतीय संगीत इस विषय में अधिक सौभाग्यशाली रहा है-पराङमखी है. पश्चिमानुयायी है, हीन भावना-कुण्ठित है। स्वस्थ जहाँ यह है कि विदेशी को भी हम देशी दृष्टिकोण से देखें, वहाँ हम देशी को विदेशी नज़रिये से देख रहे हैं। मानसिक स्वाधीनता राजनीतिक स्वतन्त्रता से अधिक स्पृहणीय तो है ही, उसके लिए अधिक बड़ी क्रान्ति, अधिक बड़े संघर्ष की भी ज़रूरत है। देब को भी अपनी कला की साधना में अपने को और अधिक तपाना था। उन्होंने मेरी कृति 'बंगाल का काल' के प्रथम संस्करण के लिए आवरण चित्र बनाया था। मेरी कुछ और कविताओं पर भी उन्होंने चित्र बनाये थे, विशेष स्मृति है मुझे 'एकान्त संगीत' के 'अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!' पर बने चित्र की।
मि० प्रकाशचन्द्र गुप्त इलाहाबाद युनिवर्सिटी में आने के पूर्व कई वर्षों तक सेन्ट जोन्स कॉलेज, आगरा में अंग्रेज़ी के लेक्चरर रह चुके थे। वहीं उन्होंने मौलिक अंग्रेज़ी और हिन्दी-लेखन आरम्भ कर दिया था। अंग्रेज़ी समालोचनात्मक निबन्धों की उनकी एक छोटी-सी पुस्तक प्रकाशित हुई थी। बाद को विशेष ध्यान उन्होंने हिन्दी समालोचना की ओर दिया। रेखाचित्र लिखने में भी उनकी रुचि थी-हिन्दी को कुछ अच्छे शब्द-चित्रात्मक लघु निबन्ध उन्होंने दिये हैं। समालोचना में उनकी प्रणाली मार्क्सवादी थी, जिसमें सामाजिक यथार्थ पर अधिक बल दिया जाता था। शुरू में उनका दृष्टिकोण कुछ उदार था, पर आगे चलकर वे प्रगतिवादी विचारधारा और साम्यवादी सिद्धान्त में सर्वांग रंग गये-लाल रंग में। उनसे अधिक निकटता के लिए उसी रंग में रंग जाना शायद ज़रूरी था- मेरे लिए जीवन का सहज-स्वाभाविक रंग ही पर्याप्त था जिसमें लाल रंग भी अनुपाततः सम्मिलित था ही, और इससे वे अपरिचित नहीं थे।
लगभग 25 वर्ष इलाहाबाद युनिवर्सिटी से सम्बद्ध रह वे विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हुए। अब उनका देहावसान हो चुका है। यह भी एक विचित्र संयोग है कि मृत्यु पूर्व उनका अन्तिम लेख मुझ पर था, जो उन्होंने मेरे ‘लोटस पुरस्कार' पाने के अवसर पर लिखा था और जिसमें उन्होंने मेरी कविता में निहित प्रगतिशील तत्त्वों की ओर संकेत किया था।
मि० हरिश्चन्द्र और मि० सूरज प्रसाद खत्री उम्र में मुझसे छोटे थे, पर मेरी पढ़ाई में सात वर्ष का व्यवधान पड़ने से उन्होंने मुझसे पहले एम० ए० किया था और पहले से युनिवर्सिटी में काम करते थे। हरिश्चन्द्रजी का एकेडेमिक रिकार्ड बहल अच्छा था, आई०सी०एस० में आने के ध्येय से वे इंग्लैण्ड गये थे, पर उसमें सफल न हो, वापस आ लाचार अंग्रेज़ी विभाग के लेक्चरर हो गये थे। फिर भी सरकारी अफसरी का जो स्वप्न-बड़े अधिकार और भारी वेतन का-उन्होंने अपने यौवन में देखा था उसको वे युनिवर्सिटी की कुर्सी पर भी सेते रहे। आज़ादी मिलने के बात किसी प्रकार वे केन्द्रीय सेवा में पहुँच गये और यथावसर अपनी राह बनाते यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन में डिप्टी या ज्वाइन्ट सेक्रेटरी हो गये, अब तो शाय रिटायर हो चुके हों।
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