जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
मि० खत्री के, मेरा ऐसा अनुमान है, कुछ आर्थिक दायित्व ऐसे थे जिन्हें युनिवर्सिटी के वेतन के बल पर न उठाया जा सकता था। कुछ अधिक कमाने की दृष्टि से उन्होंने यू०ओ०टी०सी० ज्वाइन कर लिया था, पर पहले कैम्प के बाद ही उनको लगा कि परेडों की रगड़त उनसे न झिलेगी-मैं पूरे पाँच वर्ष कैसे झेल गया। उन्होंने कुछ लिखकर पैसा कमाने की योजना बनायी-हिन्दी में अंग्रेज़ी साहित्य का इतिहास लिखा-अंग्रेज़ी में प्राप्य इतिहासों के आधार पर, जो छपा भी, समालोचना की एक बड़ी पुस्तक उनकी निकली, एक और शायद हास्य पर। बहुत कुछ उनका लिखा अप्रकाशित भी रहा। यह लेखन उनके लिए बहुत श्रमसाध्य था, और इसने उनका स्वास्थ्य चौपट कर दिया, और अन्त में उनकी असमय मृत्यु का कारण भी बना। खत्री कानपुर के थे, ठिगने शरीर के, खुले स्वभाव के, पर घोर परिश्रमी, किसी प्रकार के मनोविनोद (Recreation) में भाग लेते मैंने उन्हें नहीं देखा था। मेरे मधुकाव्य के बड़े प्रेमी थे और मुझे 'बच्चन' के बजाय Bacchus (बेकस) कहा करते थे, जो यूनानी दंतकथा के अनुसार मदिरा का देवता है।
अपने ऐसे सहयोगियों के साथ काम करते जिनमें मेरे गुरु थे, गुरुवत् थे, मुझसे बड़े थे, मेरे समवयस्क थे और मुझसे छोटे थे-छह लेक्चरर मेरे बाद नियुक्त हुएमैंने अपने जीवन के ग्यारह साल बिताये-आज़ादी के दिन से लगभग समविभाजित, पर आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद के अंग्रेजी विभाग में क्या अन्तर आना था? यह अंग्रेज़ी विभाग से अधिक जिस तरह की आज़ादी हमें मिली थी उस पर टिप्पणी है। खैर जो अन्तर आया था वह सिर्फ इतना कि संविधान के अनुसार हिन्दी राष्ट्रभाषा घोषित होने से 'फ़िराक ' साहब का हिन्दी-विरोध कुछ अधिक उग्र हो गया था और अंग्रेज़ी कपड़े के साथ लोग थोड़ी-सी स्वतन्त्रता लेने लगे थे, यानी कोट टाई के बजाय अब वे बुश-शर्ट में भी युनिवर्सिटी चले आते।
युनिवर्सिटी का साल जुलाई के मध्य से शुरू होता-नये सत्र का आरम्भ, जो इलाहाबाद के सामान्यतया असक्रिय, सुस्त, अद्ध-सुप्त जीवन में एक हलचल बनकर आता, जैसे किसी तन्द्रिल-पंकिल तालाब में चारों ओर से ताज़े बरसाती पानी की तेज़ धाराएँ आकर गिरने लगी हों-नये चेहरे, नयी आवाजें, नये अन्दाज़, नयी अदाएँ, नयी पोशाकें, नयी फज़ाएँ, युनिवर्सिटी के अहाते में, छात्रावासों में, सड़कों पर, लॉनों में, दुकानों पर, मकानों में, होटलों में, रेस्टराओं में यानी कहाँ नहीं। इस हलचल का आभास यों तो किसी-न-किसी रूप में सारे शहर में होताकिसी नवागंतुक को किसी परिचित रिश्तेदार से मिलना है, कोई शहर देखने निकला है, किसी को घर की तलाश है-एकाध कमरा ही मिल जाये-किसी को और कोई काम है, पर इसका मुख्य क्षेत्र होता कटरा-नगर की उप-बस्ती जहाँ युनिवर्सिटी स्थित है, और उसका भी विशेष केन्द्र युनिवर्सिटी का कैम्पस, जो गरमी के लम्बे महीनों में मधु-सूखे छत्ते के समान पड़ा रहता, पर अब मौसम की नम हवा के साथ उसकी ओर मधुमक्खियों के झुण्ड-के-झुण्ड टूट पड़ते। युनिवर्सिटी के काउण्टर पर क्या रेलमपेल होती।-युनिवर्सिटी में फीस जमा करने के लिए पॉकिट में पैसे ही नहीं चाहिए, बाजुओं में ताकत भी चाहिए-पसीना-से-पसीना एक होता।
वाइस चांसलर, रजिस्ट्रार के घर-दफ्तर प्रायः घेराव की स्थिति में होते-लोग बिना किसी पूर्व सूचना के, बिना पहले से समय माँगे, बिना सोचे कि उनका काम किसी अन्य स्तर से भी हो सकता है, उच्चतम अधिकारियों की ड्योढ़ी पर आ जमते। विभागाध्यक्षों, छात्रावासों के वार्डनों, सुपरिन्टेन्डेन्टों के यहाँ भी मिलने वालों की लाइनें लगी रही-किसी को जगह नहीं मिली, किसी को मन की जगह नहीं मिली, किसी को इतनी जगहें मिल गयी हैं कि चुनाव करना मुश्किल है, किसी को वांछित विषय नहीं मिला, कोई खुद आया है, कोई किसी के साथ आया है, कोई किसी की सिफारिश लाया है, किसी का काम बन रहा है, किसी का बिगड़ रहा है, किसी को सिर्फ टाला जा रहा है-बहुत-सी समस्याएँ समय से स्वयं हल हो जाती हैं-इन्सान क्यों सिर खपाये।
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