जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
शुरू के दस-पन्द्रह दिन रजिस्ट्रार के दफ्तर, अधिकारियों और प्रबन्धकों के लिए सिरदर्द के होते, लेक्चरर लोग मौज करते-आते, कॉमन रूम में कुछ देर बैठते, गप-शप करते, चले जाते-गप-शप में कोई शिमला गया था, कोई मसूरी, किसी ने नैनीताल में गरमी बितायी, किसी ने रानीखेत में, बहुत-से कहीं जाना अफोर्ड नहीं कर सके- पहाड़ जाने वालों के चेहरों पर उच्चस्थ की आभा, मैदान में पडे रहने वालों के चेहरों पर निम्नस्थ की छाया-राम की माया. कहीं धूप, कहीं छाया। मैंने तीन हज़ार कापियाँ जाँची, आपने चार हज़ार, आपने इतनी हज़ार! आपने कितनी हज़ार-बड़ा बोरियत का धन्धा है-(धनदा तो है।) अब जाके आराम, और उत्तर-कापियों में 'हाउलरों' यानी परीक्षार्थियों की भोंडी गलतियों की रस-बयानी। कुछ लोग सूची बनाकर लाते। लेक्चरर का काम है लेक्चर देना, वह तो तब शुरू हो जब एडमिशन का काम समाप्त हो जाये, अलग-अलग सेक्शन बन जायें, दों के बैठने के लिए कमरे तै कर दिये जायें, टाइम-टेबल तैयार हो जाये। और इन सब कामों में डेढ़-दो हफ्ते लग जाते।
युनिवर्सिटी में क्लास चलते, छात्रावासों में रैगिंग होती-नयों से पुरानों को पहचान या छेड़-छाड़-पुरमज़ाक से अशोभन, अभद्र और कभी-कभी क्रूर और अश्लील तक-कॉमन रूम तक रिपोर्ट पहुँची। होस्टल की परिषदों और यूनियन के चुनाव होते, बड़ी पोस्टर और इश्तहारबाज़ी होती, नारेबाज़ी, ढोल-ढप्पा, और जब तक युनिवर्सिटी कैम्पस में सब कुछ सामान्य और व्यवस्थित होता दशहरे को छुट्टियाँ पहुँच जाती। पहला टर्म समाप्त हो जाता। विद्यार्थी अपने-अपने घरों को चले जाते। युनिवर्सिटी कैम्पस शान्त और सूना हो जाता, केवल युनिवर्सिटी की टावर-घड़ी पन्द्रह-पन्द्रह मिनट पर क्रमश: चार, आठ, बारह, सोलह घण्टे बजाकर जितने बजे हों, उतने घण्टे बजाती-टिन-टुन-डिंग-डांग...टऽन, टऽन, टऽन...
दूसरा टर्म अक्टूबर से दिसम्बर तक चलता-लेक्चर क्लास और सेमिनार टाइम-टेबल के अनुसार लिये जाते, फिर भी दूसरा टर्म मुख्यतया उत्सवों का टर्म होता। इसी टर्म में युनिवर्सिटी का कान्वोकेशन होता; पुराने छात्र अपनी-अपनी डिग्रियाँ लेने आते। कान्वोकेशन के खास दिन युनिवर्सिटी कैम्पस में बड़ी चहल-पहल होती, काले-काले गाउन पहने स्नातक इधर-उधर घूमते-फिरते, उन पर उनकी विभिन्न डिग्रियों के द्योतक विभिन्न रंगों के हुड यानी परतले, सिर पर चौखुंटी काली टोपियाँ. शहर के सारे फोटोग्राफरों के बथ सेनेटहाल के चारों तरफ लगते, तरह-तरह के पोज-ग्रुप में स्नातक फोटो खिंचाते। कान्वोकेशन से अधिक उबाऊ शायद ही कोई दूसरा उत्सव होता हो-एक रटा-रटाया फार्मूला बोलकर विभागाध्यक्ष स्नातकों को प्रस्तुत करते, एक रटा-रटाया फार्मूला बोलकर वाइस चांसलर स्नातकों को डिग्री देते, कुछ रस आता तो तब जब कोई विशिष्ट व्यक्ति कान्वोकेशन ऐड्रेस देने को बुलाया जाता। होस्टलों में वार्षिकोत्सव होते-ऐनुअल डिनर, डिनर-भाषण, कवि-सम्मेलन, मुशायरे, दिसम्बर में युनिवर्सिटी के वार्षिक खेलकूद होते-स्पोर्ट्सऔर फिर युनिवर्सिटी बड़े दिन की छुट्टियों के लिए बन्द हो जाती। युनिवर्सिटी कैम्पस फिर शान्त और सूना हो जाता, वहाँ सुनाई देती सिर्फ टावर घड़ी की आवाज़, पन्द्रह, पन्द्रह मिनट पर-टिन-टुन-डिंग-डांग...।
तीसरा टर्म जनवरी से मार्च तक चलता-अध्ययन और अध्यापन दोनों का रुख परीक्षोपयोगिता की ओर झुक जाता-विद्यार्थियों की अन-अकादमिक हलचलें कम या प्रायः समाप्त हो जाती, छात्रावासों के कमरों में अधिक रात तक रोशनियाँ दिखायी देी। अप्रैल का पूरा महीना परीक्षाओं में गुज़रता-विद्यार्थियों के लिए बहुत परिश्रम का, अध्यापकों के लिए बहुत बोरियत का-इनविजिलेशन से लेकर ढेर-की-ढेर कापियाँ जाँचने तक। गरमी का प्रकोप इलाहाबाद में दिन-दिन बढ़ने लगता और हम युनिवर्सिटी बन्द होने के लिए दिन गिनने लगते। मई के प्रथम सप्ताह में युनिवर्सिटी बन्द हो जाती, सिर्फ रजिस्ट्रार का दफ्तर सुबह खुलता; सारे लम्बे-लम्बे दिन-रात कैम्पस शान्त-सूना रहता। युनिवर्सिटी की टावर-घड़ी की आवाजें-टिन-टुन-डिंग-डांग...दिन में चिलचिलाती धूप और झुलसाती लू सुनती, रातों में गर्दीले आसमान से झाँकते सितारे। और घड़ी की छोटी-बड़ी सुइयाँ प्रतीक्षा और विश्वास भरी चली जाती कि फिर जुलाई आयेगी और वही सब होगा जो पिछले साल हुआ था...और सारे सत्र का पिछला टाइम-टेबल थोड़े-बहुत सतही परिवर्तनों के साथ फिर दुहराया जायेगा।
'दिवस'-दिवस नहीं- बरस 'जात नहिं लागहिं बारा।'
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