जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
1941 पर 1951 आ धमका।
और 1951-52 का युनिवर्सिटी सत्र समाप्त ही, इसके पूर्व, ठीक तारीख ही क्यों न बता दूं, 12 अप्रैल 1952 को मैं बम्बई के साताक्रुज़ हवाई अड्डे से इण्डिया इन्टरनेशनल के जहाज़ में सवार होकर लन्दन के लिए रवाना हो गया।
अपनी आकांक्षाओं, क्षमताओं और सीमाओं की यथासम्भव जाँच-पड़ताल करके अपने विकास अथवा जीवन-क्रम का जो नक्शा मैंने बनाया था, उसमें विदेश यात्रा या विदेश में अध्ययन का कोई स्थान न था। यह ठीक है कि लड़कपन में मैंने स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की 'अमरीका-भ्रमण' और 'अमरीका-दिग्दर्शन' आदि पुस्तकें पढ़कर अमरीका पहुँचने के खयाली ख्वाब बहुत बार देखे थे, पर यह मैं बहुत पहले जान चुका था उनमें मेरी अपनी उद्भावना कम और लेखक की सफलता अधिक थी। और अब तो मेरे जीवन की गाड़ी एक ऐसी सुखद और सुविधाजनक लीक में पड़ गयी थी कि उसे छोड़कर चलने की बात भी सहसा नहीं सोची जा सकती थी-उस बहुत-चली लीक से यदा-कदा असन्तोष और ऊब का अनुभव करते हुए भी।
1952 में मैं अपनी आयु के 45वें वर्ष में था। तेजी के साथ मेरे विवाह के लगभग दस वर्ष पूरे हो चुके थे। मेरे दोनों लड़के स्वस्थ, सुन्दर, होनहार थे-बिरवों के चिकने पात, मेरे परखे-जाने-अब तो कह सकता हूँ कि मेरी परख गलत नहीं थी-बड़े, अमित ने अपनी नवीं वर्षगाँठ मना ली थी, और छोटा अजित, अगले महीने, यानी 18 मई को अपनी आयु के पाँच वर्ष पूरे करने को था। दोनों ब्वायज़ हाई स्कूल में पढ़ते थे और उनकी प्रगति पर हमें सन्तोष और हर्ष था। रहने को, गो किराये का, हमारे पास, हमारी आवश्यकताओं, सुविधाओं के लिए पर्याप्त, एक सुन्दर, खुला, बड़ा मकान था। घर को सुचारु रूप से चलाने के लिए मैं अच्छे पैसे कमा रहा था। मेरे दाहिने हाथ में भाग्य रेखा के सिरे पर एक त्रिशुल हैं। किसी हस्तरेखाविद् ने उसे देखकर मुझे बताया था कि धन मेरे पास तीन स्रोतों से आया करेगा। कम-से-कम इस समय तो आ ही रहा था युनिवर्सिटी के वेतन से पुस्तकों की रायल्टी से, और जब-तब पत्र-पत्रिकाओं, कवि-सम्मेलनों अथवा रेडियो से मिले पारिश्रमिक से। हम आराम से रह रहे थे, पर ऐश में नहीं, गो हमारा जीवन-स्तर ऐसा आभास कछ लोगों को दे सकता था। विवाह के बाद हम पति-पत्नी में से किसी को कोई लम्बी या बड़ी बीमारी नहीं हुई थी, और हम दोनों ने ही कोई ऐसा भावात्मक विपर्यय भी न जाना था जो हम दोनों के बीच किसी प्रकार के भ्रम, संशय या सन्देह को जन्म दे-छोटी-मोटी गलतफहमियों की बात मैं नहीं करता- और पारस्परिक कलह का कारण बने।
हमारे सामाजिक परिवेश। जातिगत नाते-रिश्तेदारों से हम कटे थे, कहना चाहिए हमारा पिण्ड छूट चुका था, जिसे अंग्रेज़ी में कहेंगे 'गुड रिडेन्स'। निकट सम्बन्धियों में केवल इने-गिने दो थे-मेरे मामाजी और मेरे भांजे। ऐसी घनिष्ठता जो आड़े समय हमारे काम आ सके या जिस पर हम निर्भर हो सकें, हमारी किसी से न थी। मित्रता, अधिकतर औपचारिक, हमारी कइयों से थी, शत्रु हमारा कोई था, कम-से-कम किसी को शत्रु बनाने का कोई कारण हमारी तरफ से उपस्थित किया गया था। अपने रहन-सहन जीवन के ईर्ष्याल आलोचकों और स्वभाव विवश निन्दकों से हम अपरिचित न थे, जिन्हें हमने केवल उपेक्षा का पात्र समझ रखा था। पर हमारा माँ-बाप-बेटों का छोटा-सा परिवार एक ऐसा सुगठित नीड़ था, जिसे किसी की अपेक्षा थी, न किसी से भय। युनिवर्सिटी के काम से बचे समय में अपने बच्चों को पढ़ाता हूँ या उनके साथ खेलता हूँ, राजन को पढ़ाने से छुट्टी मिल गयी है, उन्होंने बी०ए० कर लिया है और कानून पढ़ रहे हैं, स्वांतः सुखाय स्वाध्या करता हूँ, यथाप्रेरणा कविता लिखता हूँ, काव्य-आन्दोलनों में रुचि नहीं रखता, उनी भाग नहीं लेता। ऐसे नियमित और व्यवस्थित जीवन में क्या बुरा है कि मैं उसमें किसी प्रकार का व्यवधान चाहूँ?
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