जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
हाँ, अगर मेरे लिए युनिवर्सिटी छोड़ने का अफसोस सचमुच किसी को हुआ था तो मेरे विद्यार्थियों को। जुलाई से आरम्भ होने वाले सत्र में लेक्चर और सेमिनार क्लासों को लेकर लगभग सौ विद्यार्थी मेरे सम्पर्क में थे। बच्चों ने जल्दी-जल्दी आपस में कुछ चंदा इकट्ठा किया, मुझे एक विदा पार्टी दी, मुझे एक पुस्तक भेंट की, जिसके प्रारम्भिक पृष्ठों पर उन सबने अपने-अपने हस्ताक्षर किये-पुस्तक थी मानतेन की The Selected Essays (दि सेलेक्टेड एसेज) जो अब तक मेरे पुस्तकालय में है- मेरे प्रति मेरे अन्तिम विद्यार्थियों के स्नेह का प्रतीक, जिसे अपने समस्त विद्यार्थियों के स्नेह का प्रतीक मानकर मैं बहुत सँजोकर रखे हुए हूँ। अध्यापक जीवन की कतिपय सीमाओं के बावजूद उसके कुछ सुख-लाभ की कल्पना भी सहज ही की जा सकती है, पर उसकी शायद सबसे बड़ी उपलब्धि है, अपने विद्यार्थियों का स्नेह प्राप्त करना। जिसे यह नहीं मिला, मैं तो कहूँगा, उसका अध्यापक-जीवन व्यर्थ गया। काश, यह मुझे कम मिला होता, तो उससे वंचित होने की वेदना मुझे कम सालती।
मुझे ठीक याद नहीं कि किस तारीख से मैंने रेडियो के दफ्तर में जाना शुरू किया था, पर एक बात नहीं भूली कि पहले दिन जब मैं दफ्तर जाने के लिए घर से निकला था तो मेरी गाड़ी अनायास युनिवर्सिटी की ओर मुड़ गयी थी, और ऐसी भूल मुझसे कई बार हुई, शायद अपने जीवन का जो परिवर्तन मैंने स्वीकार कर लिया था, मेरा अवचेतन उसे बहुत दिनों तक अपने तरीके से नकारता रहा।
स्मृतियाँ और कल्पनाएँ जीवन में आये अचानक परिवर्तनों को झेलने में मनष्य की कितनी सहायता करती हैं, इसका अन्दाज़ा सहज नहीं लगया जा सकता। रेडियो के दफ्तर में बैठे हुए युनिवर्सिटी जीवन की मुझे कितनी-कितनी याद आती। और कभी-कभी तो मानो मैं अपनी कक्षा में ही जा बैठता।
प्रोड्यूसर के लिए एक अलग ही कमरा दे दिया गया था, उसी में पंतजी भी बैठते थे, पर वे अपराह्न में केवल दो-ढाई घण्टों के लिए आते। शेष समय मैं अपने कमरे में अकेला बैठा प्रसारण के लिए आयी सामग्री की जाँच-पड़ताल करता।
मनुष्य किस काम के लिए अपने को तैयार करता है और क्या उसे करना पड़ता है!
मैं सोचता, अगर कुछ समय बाद मुझे विदेश मन्त्रालय में ही बुला लिया गया तो वहीं केम्ब्रिज में प्राप्त किये मेरे ज्ञान का क्या उपयोग होगा!
क्या केम्ब्रिज में व्यय किया गया मेरा सारा धन, सारा समय, सारी शक्ति, उस अवधि में सही-झेली सारी मुसीबतें, सारी दिमागी परेशानियाँ व्यर्थ हो गयीं?
अगर मुझे इसका विश्वास होता तो मुझे आत्महत्या कर लेने से कौन रोकता! ऐसे विश्व-तन्त्र में जहाँ एक निरीह व्यक्ति को व्यर्थ परेशान करने का षड्यन्त्र चल सकता हो, उसमें कौन जीना चाहेगा!
नहीं।
जो भी मैंने सीखा, सहा, भोगा, अनुभव किया है वह सब-का-सब मेरे व्यक्तित्व का अंग हो गया है।
चाहे मैं रेडियो में प्रसारण-सामग्री की परीक्षा करूँ, चाहे विदेश मन्त्रालय में राजनय सम्बन्धी दस्तावेज़ों का अनुवाद, चाहे मैं कविता लिखू, चाहे गद्य, सब में मेरे जीवन की शिक्षा-दीक्षा के साथ मेरे केम्ब्रिज का संस्कार भी बोलेगा, झलकेगा, महकेगा!
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