लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

201 पाठक हैं

आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


क्या आपको इस आत्मचित्रण में केम्ब्रिज के कण्ठ का स्वर भी नहीं सुनाई पड़ा? केम्ब्रिज के दृश्यों की झाँकी भी नहीं दिखाई पड़ी? केम्ब्रिज के फूल-कलियों की सुगन्ध भी नहीं आयी? क्या वहाँ पर मेरे मन, मस्तिष्क, हृदय पर पड़े संस्कार भी मेरी पंक्ति-पंक्ति, मेरे शब्द-शब्द में नहीं साकार हुए?

तब वहाँ सीखा-समझा, देखा-सुना, भोगा-झेला कुछ भी व्यर्थ कैसे हुआ?

रेडियो के कार्यकाल में मुझे एक लम्बे सेमिनार की याद है, जो प्रोड्यूसरों के लिए दिल्ली रेडियो केन्द्र पर आयोजित किया गया था। सरकार ने सभी भाषाओं के उच्चकोटि के लेखकों को रेडियो से सम्बद्ध कर लिया था। सेमिनार में प्रसारण के सम्बन्ध में कुछ तकनीकी और कुछ सरकारी नीति का मोटा-मोटा ज्ञान कराया गया था। श्री मकर सेमिनार के इंचार्ज थे, उनका स्वर्गवास हो चुका है, मराठी में नयी कविता आन्दोलन के अग्रणी कवियों में थे।

250/- प्रतिमास अधिक वेतन की सम्भावना का द्वार खुलते ही तेजी ने और मैंने सबसे पहला निर्णय यह लिया कि हम अमिताभ और अजिताभ को पढ़ाने के लिए शेरवुड कॉलेज, नैनीताल भेजेंगे, जो उन दिनों भारत प्रसिद्ध कान्वेंट शिक्षा-संस्था थी। वहाँ के प्रिंसिपल रेवरेन्ड लेवेलिन केम्ब्रिज युनिवर्सिटी के स्नातक थे। उस नाते उन्होंने मेरे दोनों लड़कों को फौरन अपने कॉलेज में प्रवेश दे दिया और आगामी सत्र में उन्हें वहाँ भेजने की तैयारी होने लगी। बहुत दिनों से इतने उत्साह से हमने शायद ही कोई काम किया हो। हमने उससे अधिक सही निर्णय भी अपने जीवन में शायद ही कोई और लिया। अपने बच्चों के भविष्य को सँवारने से अधिक महत्त्वपूर्ण काम हमारे लिए हो भी क्या सकता था ! अमिताभ और अजिताभ, जो भी आज जीवन में हैं, उसके लिए अपनी माँ की शिक्षा-दीक्षा के बाद वे अपने को शेरवुड का ऋणी मानते हैं।

मैंने रेडियो में पूरे तीन महीने भी काम न किया था कि मुझे विदेश मन्त्रालय दिल्ली से बुलावा आ गया।

उस वर्ष जहाँ तक मुझे स्मरण है, बड़ा दिन इतवार को पड़ा था, इस कारण बड़े दिन के उपलक्ष्य में छुट्टी सोमवार 26 दिसम्बर को दी गयी थी। साल समाप्त होने में पाँच दिन शेष थे। मैंने पाँच दिनों की कैजुअल लीव ले ली, जो मेरा प्राप्तव्य था। मुझे दो कवि-सम्मेलनों में भाग लेना था-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में और होलकर कॉलेज इन्दौर में, जहाँ उन दिनों शिवमंगलसिंह 'सुमन' हिन्दी विभागाध्यक्ष थे। दोनों जगहों से अच्छे पारिश्रमिक का वादा किया गया था, मेरी आर्थिक आवश्यकताएँ अब भी कवि-सम्मेलनों द्वारा कुछ अर्जित करने को मुझे विवश करती थीं। 24 दिसम्बर की रात को काशी के कवि-सम्मेलन में भाग लेकर मैं 26 को सवेरे इन्दौर पहुँच गया, उसी रात को वहाँ कवि-सम्मेलन था।

'सुमन' ने बहुत बड़े पैमाने पर कवि-सम्मेलन का आयोजन किया था, बहत-से कवि निमन्त्रित किये गये थे। विदेश से लौटने के बाद पहली बार मैं इन्दौर गया था। 'सुमन' ने बड़े उत्साह से, विद्यार्थियों की एक बड़ी भीड़ के साथ मेरा स्वागत किया, जैसे किसी राजनीतिक नेता का। कवि-सम्मेलन मेरे सभापतित्व में होगा, इसकी घोषणा उन्होंने पहले से करा दी थी।

यात्रा का थका था, दिन को सो गया था, रात को जागने की तैयारी में भी।

सोने गया था, तब इसकी कल्पना भी न की थी कि सोकर उठूगा तो मेरा जीवन मुझे नये मार्ग पर चलने के लिए संकेत करेगा-जीवन का क्या, वह नियति का ही संकेत होगा-और बस उस पर चल ही पड़ना होगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book