जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
उठा ही था कि किसी ने आकर खबर दी- मेरे लिए इलाहाबाद से ट्रंककाल है।
तेजी मुझे बधाई दे रही थीं। इंग्लैण्ड से लौटने के बाद तेजी की आवाज़ से इतनी खुशी का विस्फोट मैंने नहीं जाना था। भगवान् के यहाँ देर है, अंधेर नहीं है।
विदेश मन्त्रालय से मेरी नियुक्ति का पत्र घर पहुंच गया था। मुझे आफ़िसर आन स्पेशल ड्यूटी (हिन्दी) के पद पर बुलाया गया था। मैं मन्त्रालय के हिन्दी सेक्शन का हेड हूँगा। मेरा काम होगा विदेश मन्त्रालय में उत्तरोत्तर हिन्दी के प्रयोग को बढ़ावा देना और हिन्दी को राजनयिक कामकाज का सक्षम माध्यम बनाना। मेरा वेतन 1000/= प्रतिमास होगा। पत्र में कहा गया था कि जितनी जल्दी हो सके, मैं विदेश मन्त्रालय पहुँचकर अपना पद संभाल लूँ।
तेजी ने राय दी कि मैं उसी रात को इन्दौर से चलकर दूसरे दिन दिल्ली पहँच जाऊँ-मंगल का दिन होगा, नया काम शुरू करने के लिए शुभ दिन, 27 तारीख भी होगी, तीन से कटने वाली संख्याएँ मेरे लिए शुभ होती हैं, फिर 27 तो मेरे जन्मदिन की संख्या होने से और शुभ। इसलिए जैसे भी हो मैं 27 दिसम्बर को दिल्ली पहुँचकर विदेश मन्त्रालय में अपने को प्रस्तुत कर दूँ।
कुछ सोचने-विचारने के लिए समय ही न था। जल्दी-जल्दी टाइम-टेबल देखा। दस बजे रात को एक ऐसी गाड़ी थी जिसे रतलाम से पकडकर सो दिन सवेरे दिल्ली पहुंचा जा सकता था। जाड़े के दिन थे, 7 बजे रात से कवि-सम्मेलन था। गाड़ी पकड़ने के लिए मुझे साढ़े सात तक कार से रतलाम के लिए रवाना हो जाना चाहिए था। 'सुमन' मुझे सभापति की गद्दी पर बिठलाकर रात-भर कविसम्मेलन जमाने की कल्पना किये हुए थे। मैंने इलाहाबाद के ट्रंककाल की बात उन्हें बताई तो वे मारे खुशी के उछल पड़े, पर जब मैंने उनसे कहा कि कवि-सम्मेलन आरम्भ होने के आधे घण्टे बाद वे मुझे जाने की आज्ञा दे दें तो वे बड़े निराश हुए।
उनकी पहली प्रतिक्रिया यही थी-यह कैसे हो सकता है। पर जब मैंने उन्हें तेजी के आग्रह से अवगत किया तो वे मान गये और सारा प्रबन्ध ऐसा कर दिया कि मैं कार से समय पर रतलाम पहुँचकर दिल्ली की गाड़ी पकड़ सकूँ।
सात बजे ठीक हम लोग कवि-सम्मेलन में पहुँचे। सारा पण्डाल खचाखच भरा था, आठ-दस हज़ार जनता तो होगी वहाँ। सुमन ने मेरे स्वागत और विदा में जो भाषण दिया था, वह मुझे अब तक याद है-'स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी।' मेरी पंक्तियाँ मुझ पर ही जितनी सटीक बैठी हैं, शायद ही किसी और कवि की उस पर।
'सुमन' अपनी जीवन्तता से हर स्थिति को बड़े सहज भाव से नाटकीय बना देते हैं। विदेश मन्त्रालय में मेरी नियुक्ति की घोषणा उन्होंने सार्वजनिक रूप से उस भरी सभा में कर दी–'नेहरूजी ने देश-विदेश सम्बन्धों में हिन्दी को स्थान दिलाने के लिए अपने सहायक के रूप में बच्चनजी को दिल्ली बुलाया है'...आदि-आदि। मालवा में हिन्दी-प्रचारक के लिए जो उत्साह था, मेरे कवि के प्रति जो आकर्षण था और नेहरू के नाम में जो जादू था-सबने मिलकर उस जन-समुद्र में उल्लास की जो लहरें उठाई थीं, उनसे खेलना 'सुमन' का ही काम था। उन्होंने जनता से यह मनवा लिया कि सभापति होने के बावजूद सबसे पहले मैं कविता-पाठ करूँगा; क्योंकि मुझे 10 बजे रतलाम से दिल्ली के लिए गाड़ी पकड़नी है। बिना उनकी इस भूमिका के, 'सुमन' राज़ी हो जाते, तो भी शायद ही जनता मुझे सभा से उठने देती।
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