जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
बम्बई में कैलाशपतजी ने अपने परिवार के डाक्टर से मेरा इलाज कराया। पाँच दिन के बाद भी मैं पूर्णतया ज्वरमुक्त नहीं हुआ, छठे रोज़ मुझे लन्दन के लिए प्रस्थान करना था। लोग डराते, बुखार में अगर मैं लन्दन के हवाई अड्डे पर उतरा तो मुझे 'क्वारंटीन' में डाल दिया जायेगा-'क्वारंटीन' शायद फ्रेंच शब्द है, जिसका अर्थ है : चालीस-संक्रामक रोग से पीड़ित समुद्री जहाज़ के यात्री को पहले चालीस दिन तक बन्दरगाह से बाहर नहीं जाने दिया जाता था। शब्द अब भी वही प्रचलित है, अवधि कम कर दी गयी है। मैं कहता, 'चलो, उसका भी अनुभव हो जायेगा।' मैं अपना प्रस्थान स्थगित करने को तैयार न था। बच्चों को छोडकर तेजी अधिक दिन बम्बई नहीं रुक सकती थीं, बीमार मुझे छोड़कर वे जाना भी नहीं चाहती थीं। बीमारी की मजबूरी से भी इलाहाबाद लौटने में मुझे बड़ा संकोच था, कितने लोगों ने इलाहाबाद स्टेशन पर मुझे विदा दी थी, फूल-माला पहनाकर, हाथ, रूमाल हिलाकर, शुभकामनाएँ, शुभाशीष देकर!-कितना अजीब लगेगा कि सात रोज़ बाद मैं फिर इलाहाबाद लौट जाऊँ! लौटना भी तो कठिन है, चल चुका युग एक जीवन' तो फिर लन्दन के लिए निश्चित तिथि को रवाना हो जाऊँ, शायद रास्ते में अच्छा हो जाऊँ, शायद और ज़्यादा बीमार पड़ जाऊँ-पड़ जाऊँ तो पड़ जाऊँ, जो होना है हो, पर लौटने की उपहासास्पद स्थिति का सामना मुझसे न किया जायेगा। तेजी ठीक समय पर मुझे हवाई अड्डे लिवा ले गयीं।
अब एक को विदा होना था।
अब एक को विदा देनी थी।
'यह विदा का नाम ही होता बुरा है,
डूबने लगती तबीयत।'
और मैंने हफ्ते-भर की बीमारी से कमज़ोर शरीर और डूबती तबीयत से बम्बई से लन्दन तक का सफर किया। रास्ते में एक क्षण को नींद न आयी। ज़्यादातर वक्त मैं आँख मूंदे कुर्सी पर लेटा रहा-कभी उसके स्मृति-चित्र बनाता जो पीछे छूट गया था और कभी उसके कल्पना-चित्र बनाता जो आगे आने वाला था। हमारा जहाज़ 12 अप्रैल को दोपहर में बम्बई से रवाना हुआ था और थोड़ी-थोड़ी देर के लिए केअरो और पेरिस में रुकता 13 को सवेरे लन्दन पहुँच गया।
मेरी प्रत्याशा के विपरीत लन्दन के हवाई अड्डे हीथ्रो की इमारत न तो बहुत बड़ी थी, न भव्य। भीड़-भाड़ भी कुछ ऐसी न थी। सच कहूँ तो मुझे लन्दन का हवाई अड्डा कुछ सूना-सा लगा। लाउंज में सिर्फ हमारे जहाज़ से उतरे यात्री भर थे। इण्डिया हाउस ने मुझे सूचित किया था कि शिक्षा विभाग के एक सम्पर्क अधिकारी हवाई अड्डे पर मुझे लेने के लिए पहुंचेगे, पर वहाँ पर तो कोई न था। लाउंज में लाउड-स्पीकर पर इतनी सचना मुझे अवश्य दी गयी कि मिस मार्जरी बोल्टन विक्टोरिया टर्मीनल पर मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं, जहाँ हमें इण्डिया इन्टरनेशनल की बस से पहुँचा दिया जायेगा। मार्जरी को मैंने अपने लन्दन पहुँचने के समय और दिन से सूचित कर दिया था।
कस्टम और मेडिकल अधिकारियों का व्यवहार बहुत शिष्ट और सहानुभूतिपूर्ण था और थोड़ी-सी औपचारिक जाँच-पड़ताल के बाद मुझे बाहर जाने की इजाज़त दे दी गयी।
मुझे कुछ पता नहीं कि मेरी बस लन्दन के किस हिस्से से होकर जा रही थी, फिर भी बस की खिड़की से बाहर का जो कुछ भी देखा जा सके, उसे देखता मैं चला जा रहा था। साफ-सुथरे मकानों, शीशेदार खिड़कियों, फुटपाथों पर आते-जाते गौरांग मर्द-औरतों-बच्चों, और सड़क पर दौड़ती मोटरों, बसों की धुंधली-सी तस्वीर आज भी मेरी आँखों के सामने है। स्वच्छता, समृद्धि, व्यवस्था नगर व नगर-निवासियों में स्वाभाविक-सी लगी। कहीं ऐसे दृश्य देखने की याद नहीं जो अशोभन या अप्रिय हों। सहसा हमारी बस एक इमारत के सामने खड़ी हुई और किसी ने बताया कि हम विक्टोरिया टर्मीनल पर पहुँच गये हैं। बाहर इन्तज़ार करते लोगों में नीले रंग के कपड़ों में एक लड़की बस के लोगों में मुझे पहचानने का प्रयत्न करती जल्दी-जल्दी अपने हाथ हिला रही थी। यह मार्जरी थी।
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