जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
मार्जरी को जब यह पता लगा कि मैं आधुनिक अंग्रेज़ी कविता में रुचि रखता हूँ तो उसने अपने निजी पुस्तकालय से इलियट के बाद उभरने वाले प्रमुख कवियों के कोई पचास कविता-संग्रह मेरे लिए भेज दिये, कुछ आधुनिक काव्य-समालोचना की पुस्तकें भी। उनमें स्पेंडर और आडेन की कृतियों से मैं भी परिचित हो चुका था, नया परिचय एडिथ सिटवेल, मैक्नीस आदि कवियों से हुआ। स्पेंडर जिस तेज़ी से साम्यवाद-पोषित प्रगतिशीलता की ओर झुके थे, उसी तेज़ी से उससे निराश हो सौन्दर्यवादी हो गये, आडेन में यथार्थ की चेतना और उसके प्रति कटुताहीन व्यंग्य की भावना स्पष्ट थी, पर आडेन अध्यापन का कार्य करने के लिए अमरीका चले गये और उनका कवि धीरे-धीरे दबने लगा। सभी आधुनिक कवियों पर कमोबेश इलियट का प्रभाव देखा जा सकता था। काव्य के पुराने उपकरणों के प्रति सभी का विद्रोह था, पर नयी भाषा, नये मुहावरे, नये प्रतीकों को वांछित गरिमा कम ही लोग दे पाये थे। अत्याधुनिक कवि अपनी अद्भुत अनुभूतियों-जो प्राय: अपने अवचेतन के प्रति अधिक सचेत होने से जागी थीं- और एकदम वैयक्तिक अभिव्यक्तियों के कारण किसी वर्ग के पाठक के साथ अपना संवाद न स्थापित कर पाते थे। विचित्र है कि जिन दो कवियों को सामान्य अंग्रेज़ जनता अपने निकट पाती थी, वे थेरुपर्ट ब्रक और डीलन टामस। रुपर्ट ब्रक के काव्य के ताने-बाने में राष्ट्रीयता का एक प्रबल सूत्र है। महायुद्ध के समय ऐसी कविता के लोकप्रिय होने का कारण सहज ही समझा जा सकता है, पर युद्ध के समय जनता ऐसी तटस्थ मन:स्थिति में नहीं होती कि काव्य के गुणों का सही मूल्यांकन कर सके। सम्भव है, युद्ध के दूर पड़ जाने पर उनके प्रति जन-रुचि बदल गयी हो, पर डिलन टामस की जन-मान्यता के कारणों पर कुछ विचार करना होगा। उन्होंने भी बहुत कुछ नये को अपनाया था, पर पुराने में जो स्वस्थ था, उसका बहिष्कार न किया था। उनकी अनुभूतियों में वैयक्तिकता है, पर वे उसे जिस गहराई तक ले जाते हैं, वहाँ दूसरे भी अपना कुछ पाते हैं। अपनी अभिव्यक्ति में वे कला अथवा तकनीक का बड़ा संयत उपयोग करते हैं बस उतना ही, जितना पाठक के लिए भारी न पड़े। वे अपनी कविता में विद्वत्ता से अधिक मानवता को प्रक्षिप्त करते हैं। एक चौथी बात, विज्ञान की अधुनातनता, अद्यतनता से कविता होड़ नहीं ले सकती,न उसे लेना चाहिए, उसकी गरिमा समय से कछ पीछे रहने में है या फिर समय से बहत आगे रहने में। डिलन टामस इस रहस्य को जानते हैं। मेरी ऐसी धारणा है कि अंग्रेज़ जन-मानस जिस प्रकार के कवि की कल्पना अपने अन्दर बसाये हैं, उसे डिलन टामस का ही कोई विकसित रूप साकार कर सकता है।
उस समय आधुनिक अंग्रेज़ी कविता के सम्बन्ध में मैं कुछ ऐसे ही परिणामों पर पहुंचा था। लीविस से तो मैं दुबारा मिला भी नहीं, पर केम्ब्रिज के और भी विद्वानों और विचारकों से जब कभी मेरी बातचीत हुई, मैंने उन्हें वर्तमान कविता से असन्तुष्ट और कविता के भविष्य के बारे में निराश पाया।
केम्ब्रिज युनिवर्सिटी एकमात्र 'ट्राइपास' परीक्षा के लिए विद्यार्थियों को तैयार करती है. पास करने पर विद्यार्थी अपने नाम के आगे बी०ए० लगा सकता है। एम०ए० नाम का कोई पाठ्यक्रम या परीक्षा नहीं है। ट्राइपास पास करने पर एक निश्चित अवधि के बाद कुछ फीस देकर आदमी एम०ए० की डिग्री, अगर चाहे तो, ले सकता है। कहने का मतलब है; 'ट्राइपास' कोर्स के अन्तर्गत जो उच्चतम शिक्षा किसी विषय की आवश्यक है, वह युनिवर्सिटी दे देती है। ट्राइपास के अंग्रेज़ी साहित्य के पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में मेरी जिज्ञासा थी। प्रत्याशा मेरी यह थी कि अंग्रेज़ी जहाँ की भाषा है, वहाँ तो साहित्य की नवीनतम उपलब्धियाँ-या उनमें जो उच्च कोटि का होगा, वह कोर्स में होगा ही। मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि साहित्य के कोर्स में कोई ऐसी पुस्तक न थी जो 40-50 वर्ष पहले प्रकाशित न हुई हो। अन्तिम कवि जो कोर्स में था, वह था- मेथ्यू आरनल्ड, जिसकी मृत्यु 19वीं सदी के अन्त में हुई थी। ईट्स, इलियट, गल्जवर्दी, शा को हम अपनी युनिवर्सिटियों में कोर्स में लगाये हैं, वहाँ इनमें से कोई कोर्स में न था। जो 'नवीनतम' उपन्यास कोर्स में लगा था, वह था-डी०एच० लारेंस का Sons and Lovers (सन्ज एण्ड लवर्स) जो 1913 में प्रकाशित हुआ था। चर्चा हम 1954 के कोर्स की कर रहे हैं। और, अपने यहाँ हिन्दी पाठ्यक्रमों की यह स्थिति है कि कवि जी तो साइकिल पर सड़क पर चल रहे हैं, और क्लास में उनकी कविता पढ़ाई जा रही है। में शायद एक व्यंग्य-चित्र प्रस्तुत करने के मोह में कुछ अतिशयोक्ति कर गया, पर मैं युनिवर्सिटी में लगे एक ऐसे संकलन के विषय में जानता हूँ, जिसमें जिन कवि जी की कविताएँ सम्मिलित थीं, वही 'प्रोफेसर' के रूप में उन कविताओं को पढ़ाते भी थे।
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