जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
ऐसा नहीं है कि केम्ब्रिज में युगीन अथवा नवीन साहित्य को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। उसे पुस्तकालयों में संजोया जाता है, लोग उसे पढ़ते हैं, उसकी चर्चा करते हैं, उसकी आलोचना-प्रत्यालोचना होती है, उस पर लेख अथवा पुस्तकें लिखी जाती हैं, पर कोई साहित्य पाठ्यक्रमों में स्थान तभी पाता है, जब वह अंग्रेज़ी समाज अथवा जीवन में कोई स्थान बना लेता है। वहाँ साहित्य एक स्वस्थ वृक्ष के समान जब जीवन में, समाज में अपनी जड़े गहरे जमा लेता है, तब अपनी शाखाएँ, अपने फूल-फल युनिवर्सिटी की छतों तक पहुँचाता है। यहाँ हम युनिवर्सिटी की छतों पर उसकी जड़ों को जमाने का प्रयत्न कर उसकी शाखाओं को, फल-फूल को समाज की धरती पर उतारने का प्रयत्न करते हैं। लगता है, 'ऊर्ध्वमूलमध: शाखम्' का पाठ हमने बहुत ध्यान से पढ़ा है। हम ज़रा सोचें कि हम कितने सफल हुए हैं! अंग्रेज़ी समालोचना बहुत पैनी है, वह किसी रचना के गुण-दोष को बड़ी जल्दी ताड़ लेती है, फिर भी वह समय को सबसे बड़ा समालोचक मानती है। साहित्य का सबसे बड़ा गुण है, जीवन्तता। उसे जीना चाहिए, अपने बल पर जीना चाहिए। जो समय में नहीं ठहरता, वह दुर्बल था, निष्प्राण था। उसे स्वाभाविक गति से मरने देना चाहिए, हम कहाँ तक मुर्दे ढोएँगे, ढुलाएँगे। अंग्रेजी साहित्य से परिचित जानते हैं कि बहुत-से लेखक, कवि किसी समय बहुत बड़े लगे थे, बहुत पढ़े गये थे मुझे जान मर मैरी कोरेली याद आ गये हैं-समय में नहीं ठहरे, यनिवर्सिटियों में कभी कोर्स में नहीं लगे। केम्ब्रिज के एक वयोवृद्ध प्रोफेसर ने मुझसे कहा था कि प्रौढ़ समालोचना का काम ही यह है कि वह साहित्य की जीवन्तता-उसके समय में ठहरने के कारणों का विश्लेषण करे। इसीसे साहित्य और समाज को जोड़ने वाली बहुत-सी सूक्ष्म गाँठें खुलती हैं। बहरहाल, आज से बीस-पच्चीस वर्ष पहले केम्ब्रिज में बीसवीं सदी का साहित्य पाठ्यक्रमेतर (Extra Mural) व्याख्यानों का विषय तो था, पर पाठ्यक्रम में नहीं। यह (Extra Mural) शब्द ही बड़ा व्यंजक है। इसके अर्थ है बाहरी दीवार-यानी जो बाहरी दीवार पर हो, लेकिन जिसे कमरे में प्रवेश न मिला हो।
कक्षाओं में जो व्याख्यान होते थे, वे प्रायः लिखित होते थे-वक्ता और श्रोता दोनों के लिए इसके जो लाभ हैं, उनकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। हम तो अपने यहाँ लेक्चर झाड़ते हैं। व्याख्यान के बीच कोई प्रश्न नहीं उठाये जाते थे, विद्यार्थी प्रायः नोट लेते थे। सप्ताह में एक बार Discussion Class (प्रश्नोत्तर कक्षा) होते थे और विद्यार्थियों के प्रश्नों का उत्तर दिया जाता था। ठीक तरह का प्रश्न उठाने के लिए भी कम योग्यता नहीं चाहिए।
व्याख्यान-कक्षाओं की पूरक होती थीं सेमिनार कक्षाएँ, जो युनिवर्सिटी की ओर से नहीं, कॉलेजों की ओर से आयोजित होती थीं-अब तक कॉलेज और युनिवर्सिटी का अन्तर तो आपको स्पष्ट हो गया होगा। मैं कुछ सेमिनारों में भी जाकर बैठा। लेक्चर क्लास में तो तीन-चार सौ विद्यार्थी भी बैठ सकते थे, सेमिनारों में तीन-चार। यहाँ विद्यार्थी अध्यापक के अधिक निकट सम्पर्क में आता था, वह अपनी व्यक्तिगत शंकाएँ अध्यापक के सामने रख सकता था और उनका समाधान पाता था। विद्यार्थी लिखित रूप में भी अपना बहुत-सा काम अध्यापक को दिखाते थे, और वह उसका यथोचित संशोधन करता था। पर सेमिनार में अध्यापक जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम करता था, वह था, विद्यार्थियों के पाठ्यक्रमेतर स्वाध्याय को निर्देशित करना-उनकी योग्यता, रुचि, आवश्यकता को जाँच-परख कर। बिना इसके विद्यार्थी पुस्तकों के अरण्य में खो सकता था, जैसे मैं स्वयं अपने विद्यार्थी जीवन में खो गया था। युनिवर्सिटी का बड़ा पुस्तकालय है ही, पर नगर के कॉलेजों के-कभी तो एक में एक से अधिक-अध्यापकों के निजी, इतने पुस्तकालय हैं कि ऐसा मैंने कभी नहीं देखा कि कोई विद्यार्थी कोई पुस्तक पढ़ना चाहता हो और वह उसे प्राप्य न हो। केम्ब्रिज में पुस्तकों की दुकानें भी इसको बुरा नहीं मानी, उल्टे इसको प्रोत्साहन देती हैं कि अगर कोई विद्यार्थी कोई किताब खरीदने में असमर्थ हो तो वहीं खड़े-खड़े पढ़े, नोट ले चाहे घण्टों-हाँ, किताबों को मैली न करे।
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