जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
जब मैं केम्ब्रिज गया, युनिवर्सिटी-स्तर पर अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने-पढ़ाने का मेरा अनभव 25 वर्ष का था। पर साहित्य की जो गहरी समझ. उसके प्रति जो व्यापक दृष्टिकोण मैंने वहाँ के अध्यापकों के व्याख्यानों में पाया, वह एक नयी चीज़ थी। हम बहुत प्रयत्न करके भी उसका आयात अपने देश में नहीं कर सकते, क्योंकि अंग्रेज़ी जिस प्रकार अंग्रेज़ी-जीवन से जुड़ी है, उस प्रकार हमारे जीवन से न जुड़ी है, न जुड़ सकती है। हाँ, अपनी भाषा, अपना साहित्य पढ़ाने में हम उससे प्रेरणा ले सकते हैं, उससे लाभान्वित हो सकते हैं। वहाँ साहित्य, चाहे वह कितनी ही बड़ी प्रतिभा की देन क्यों न हो, समाज की उपज माना जाता है, ऐतिहासिक, राजनीतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आर्थिक परिस्थितियों की उपज, क्योंकि प्रतिभा अपनी विशिष्टता के प्रति सचेत होकर भी इनसे अप्रभावित नहीं रह सकती। इसलिए, साहित्य-शिक्षण में उसकी उस पृष्ठभूमि को समझने-समझाने पर पर्याप्त बल दिया जाता है। फिर साहित्य समाज की अकेली अभिव्यक्ति नहीं। किसी भी युग के स्थापत्य, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत में जो सूक्ष्म एकसूत्रता होती है, उसे भी देखने-दिखाने का प्रयत्न किया जाता है, साथ ही कलाओं में साहित्य के उस अतिरिक्त गुण को भी, जिसे उसकी वर्धमानता कह सकते हैं। यानी जीवन्त साहित्यिक कृतियों में समय का एक आयाम जुड़ता चलता है, जिससे उनका महत्त्व और अर्थ बदलता रहता है। अध्यापकों में अगर कल्पनाप्रवणता और अन्तर्भेदी दृष्टि हो-और केम्ब्रिज में यह मैंने बहुतों में देखी-तो वह पुराने और घिसे-पिटे पाठ्यक्रम को भी बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं। मुझे एक वयोवृद्ध अध्यापक का 'रोमियो-जूलियट' पर दिया गया व्याख्यान याद आता है, जिसमें उसने यह दिखाने का प्रयत्न किया था कि जैसे शेक्सपियर को उस भावनात्मक समस्या का पूर्वाभास था, जो विश्वयुद्ध के पश्चात् योरोपीय समाज में उठेगी। पुराना साहित्य इसीलिए नहीं पढ़ाया जाता कि उसका ऐतिहासिक महत्त्व है, बल्कि इसलिए भी कि किसी अंश में वह आधुनिक परिस्थितियों-परिवेश से जुड़ा है और युगीन और नवीन को बड़े या महान् की संज्ञा तभी दी जाती है, जब वह किसी रूप में अपनी गौरवमयी परम्परा से सम्बद्ध हो।
अंग्रेज़ी साहित्य की धारा को प्रायः एक और बड़े प्रवाह के अंग के रूप में देखा जाता है-जिसे योरोपीय कह सकते हैं। योरोप अपनी अनेकरूपी विविधताओं के बावजूद एक इकाई है-ऐसी इकाई संसार में किसी भी महाद्वीप को नहीं मिली, न एशिया को, न अमरीका को, न अफ्रीका को, आस्ट्रेलिया को शायद कभी सुदूर भविष्य में मिल जाये। यूनानियों की मानववादिता, रोमनों की विधि-व्यवस्था, ईसाइयत का धर्म, विज्ञान का उत्कर्ष, और मशीनी उद्योगों का विकास और विस्तार-इन सबों ने पूरे योरोप को प्रभावित किया है और एक खास नमूने में ढाला है। योरोपीय सभ्यता, संस्कृति के समान योरोपीय साहित्य भी एक अलग इकाई है। अंग्रेजी साहित्य को, कहना चाहिए किसी भी योरोपीय भाषा के साहित्य को, तभी सम्यक रूप से समझा जा सकता है, जब उसे योरोपीय साहित्य के बीच में रखकर देखा-परखा जाये। मुझे यह देखकर आश्चर्य नहीं हुआ कि केम्ब्रिज में अंग्रेजी साहित्य के अध्यापक बिना किसी अपवाद के दो-तीन अन्य योरोपीय भाषाओं और साहित्यों के ज्ञाता थे।
मैं फिर कहना चाहँगा कि भारत के अंग्रेज़ी अध्यापकों को इंग्लैण्ड भेजकर अगर यह दिखाना है कि वहाँ अंग्रेज़ी कैसे पढ़ाई जाती है और यह सिखाना है कि वे लौटकर उसी तरह से भारत में अंग्रेज़ी पढ़ायें तो ब्रिटिश कौंसिल बड़े भ्रम में है। वह अपने उद्देश्य में कभी सफल न होगी। जो सीखा जा सकता है, वह यह कि हम अपने देश में अपना साहित्य किस तरह पढ़ायें। मुझे हिन्दी पढ़ानी होती तो उसके तरीके में कुछ सुधार कर सकता था। पर मुझे हिन्दी पढ़ानी नहीं, और हिन्दी पढ़ाने वाले अंग्रेज़ी पढ़ाने वाले से नये सुझावों का सबक क्यों सीखने लगे! चलिए, बात खत्म हुई।
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