जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
अपने शोध-कार्य के सम्बन्ध में मैं मि० हेन से मिला। वे युनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के लेक्चरर थे और सेंट कैथरीन्स कॉलेज के फेलो और सीनियर ट्यूटर। हेन ऊँचे कद, भरे शरीर, भारी सिर, छोटी-नीली, पर दूर-भेदी आँखों और घनी-भूरी मूंछों से मुझे दबंग व्यक्ति लगे-पिछले महायुद्ध में पूरे छह वर्ष उन्होंने फौजी के रूप में काम किया था और लड़ाई जब रुकी थी, वे ब्रिगेडियर के पद तक पहुँच गये थे। पहले-पहल उन्हें देखकर कोई भी एक बार दहशत में आ सकता था-आवाज़ भी उनकी भारी, ठहरी-सी और कहीं गहरे से आती प्रतीत होती थी-कूप-गिरा-गम्भीर। पर यह उनका बाहरी रूप था। स्वभाव से वह कोमल और किसी हद तक भावुक भी थे, वास्तव में वे आइरिश थे-केल्ट रेस के, आयरलैण्ड के एक बड़े सम्भ्रान्त परिवार के-उनके पितामह आइरिश कचहरी में जज रह चुके थे, पिता मजिस्ट्रेट, पर उन्होंने किसी कारण ब्रिटिश नेशनैलिटी ले ली थी। उम्र उनकी पचास से कुछ ऊपर थी, पर लगते थे लगभग साठ के।
हेन अपने विद्यार्थी-जीवन में बड़े कुशाग्र थे और उन्होंने अपनी सारी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में पास की थीं। केम्ब्रिज से ट्राइपास करने के बाद उन्होंने बर्मा शेल में नौकरी कर ली थी और उस सिलसिले में दो-तीन वर्ष भारत में भी रहे थे। सेंट कैथरीन्स कॉलेज की फेलोशिप मिलने पर उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी थी और तब से बराबर केम्ब्रिज में अध्ययन और अध्यापन का काम करते आ रहे थे। फेलोशिप के काल में उन्होंने ईट्स को अपने विशेष स्वाध्याय का विषय बनाया था। विद्यार्थी-जीवन से ही उन्हें ईट्स की रचनाओं में रुचि थी। ईट्स से तो उनका पारिवारिक सम्बन्ध था, वे उनसे कई बार मिले थे, उनका ईट्स के साथ पत्र-व्यवहार भी था। अपनी परिस्थिति, योग्यता, रुचि सभी से हेन, ईट्स और उनकी रचनाओं को समझने के विशेष अधिकारी थे। आश्चर्य नहीं कि ईट्स पर लिखी उनकी पुस्तक को ईट्स के आलोचना-साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान दिया जाता है। जिस समय मैं उनसे मिला, उस समय भी ईट्स-साहित्य पर मनन-चिन्तन की अनेक मौलिक योजनाएँ उनके दिमाग में थीं। वे ईट्स को बहुत बड़ा कवि मानते थे-मिल्टन नहीं तो, वर्ड्सवर्थ के बाद अंग्रेज़ी का सबसे बड़ा कवि, और उनकी धारणा थी कि ईट्स के साहित्य का अध्ययन अभी कई दिशाओं में और कई दृष्टियों से होना बाकी है।
जब उन्होंने मुझसे पूछा कि 'आप ईट्स के किस पक्ष पर काम करना चाहेंगे?' तो मैंने कहा कि मेरे दिमाग में तो यह विषय है-'ईट्स पर भारतीय दर्शन और दंतकथा का प्रभाव।' उनकी राय थी कि यह एकाध निबन्ध का विषय तो हो सकता है, पर शोध-प्रबन्ध का विषय नहीं। साथ ही, उन्होंने माना कि यह ईट्स के चिन्तन-मनन की दिशा थी और उसने किसी अंश में उन्हें प्रभावित भी किया था, पर ईट्स के चिन्तन-मनन की दिशाएँ और भी थीं, उनका मस्तिष्क बहुत जिज्ञासु और बड़ा ग्रहणशील था, और सभी से उन्होंने कुछ-न-कुछ लिया था, लेकिन उधार के रूप में नहीं, उसे अपनी प्रतिभा की आँच में गलाकर, ढालकर, किसी अभिनव रूप में। हेन का विचार था, उसके विश्लेषण के लिए गहन अध्ययन, अन्तर्भेदी दृष्टि और सूक्ष्म कल्पना अपेक्षित है, फिर भी अपनी पकड़ और पहुँच की सीमा में जो मैंने जाना-समझा था, उसकी परख उन्होंने करनी चाही।
पहली बार जब मैंने हेन से मिलने का समय माँगा तो उन्होंने मुझे कॉलेज में खाने पर बुला लिया, खाना सात बजे शाम को होने को था। और खाने के पहले, खाने के दरमियान, खाने के बाद आधी रात तक वे मुझसे ईट्स के विषय में बात करते रहे, पूछते रहे और जब मैं उनसे विदा हुआ तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं ईट्स के सम्बन्ध में जो कुछ भी जानता था, जो कुछ भी मैंने सोचा था, जो कुछ भी सोच सकता था-सबका सब उनके सामने उँडेल आया। बहुत बाद को एक दिन उन्होंने मुझे बताया था, वह तुम्हारा पहला 'वायदा' (मौखिक परीक्षा) था। जब मेरे पास कोई शोधाकाँक्षी आता है तो मैं यह देखने का प्रयत्न करता हूँ कि वह शोध करने का अधिकारी है कि नहीं, उसके पास शोध करने वाला मस्तिष्क है कि नहीं? इसके लिए केवल अकादमिक योग्यता अथवा स्वाध्याय पर्याप्त नहीं, कुछ और भी चाहिए। शोध के लिए एक खास तरह का दिमाग़ चाहिए. जिसमे याददाश्त का वह माद्दा हो जो अक्सर दर पडी चीजों में सम्बन्ध बिठा सके.जो ऐसे तथ्यों अथवा तत्त्वों की खोज कर सके, उनको पकड़ सके जो नये सत्य का संकेत करते हों। वास्तव में, शोध-कार्य आरम्भ कराने के पहले निर्देशक को स्वयं एक शोध-कार्य करना पड़ता है, करना चाहिए, और वह है शोधक की शोध या खोज। अगर अधिकारी शोधक मिल गया तो शोध का आधा काम समाप्त समझो।' मैंने कहीं पढ़ा था कि प्राचीन काल में नालंदा के विश्वविद्यालय के फाटक पर दरबान की जगह पर एक महापण्डित बैठा रहता था और जब कोई विद्यार्थी वहाँ पढ़ने के लिए आना चाहता था, तब उसे उस दरबान से प्रश्नोत्तर करना पड़ता था। यदि वह उसकी क्षमता से सन्तुष्ट होता था तो उसे अन्दर प्रवेश करने देता था, वरना वही से लोटा देता था। उस रात हेन को मैंने नालंदा के महापण्डित के रूप में ही देखा।
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