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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


जब मैं चलने लगा तो हेन ने मुझे एक अलमारी दिखलाई जिसमें ईट्स का और ईट्स पर जितना भी साहित्य उपलब्ध था, सब लगा था। पत्र-पत्रिकाओं में ईट्स पर जो अच्छे लेखादि निकले थे, वे भी टाइप कराके रखे हुए थे, एक पूरी फाइल ईट्स के साथ हेन के पत्र-व्यवहार की थी। यह सारी सामग्री हेन ने स्वयं अपनी पुस्तक लिखते समय जुटाई थी, जो दो ही वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी। उन्होंने मुझसे कहा, 'तुम प्रतिदिन दो बजे से छह बजे तक मेरे कमरे में बैठकर इन पुस्तकों को पढ़ सकते हो, किसी पुस्तक को ले जाना चाहो तो ले भी जा सकते हो। पहला काम तो यह करो कि ईट्स-रचित और ईट्स पर जितना भी आलोचनात्मक साहित्य प्रकाशित हो चुका है, सबको पढ़ जाओ, सब तुम्हें यहाँ मिलेगा, यहाँ न मिला तो युनिवर्सिटी लाइब्रेरी में मिलेगा, कुछ बहुमूल्य दुर्लभ सामग्री ब्रिटिश म्यूज़ियम के पुस्तकालय में मिलेगी। अभी तो तुम इसी बात को नोट करने का प्रयत्न करो कि ईट्स की बौद्धिक जिज्ञासाएँ किस-किस दिशा में थीं।' आखिर में उन्होंने एक बात जोड़ दी कि 'सारे आलोचना साहित्य को पढ़ना इसलिए भी ज़रूरी है कि तुम जब अपना प्रबन्ध लिखो तो उन बातों को मत दुहराओ, जो और लोग कह चुके हैं। क्या हेन ने अपने प्रथम साक्षात्कार में ही मुझे शोध का अधिकारी समझ लिया था?

उन दिनों मेरी दिनचर्या प्राय: यह होती- मैं सुबह नाश्ता करके अपनी डिग से निकलता। पहले नगर की सेन्ट्रल लाइब्रेरी में जाता, पास ही थी। वहाँ खड़े-खड़े दैनिक पत्रादि देखता और युनिवर्सिटी लाइब्रेरी चला जाता। वहाँ एक-डेढ़ बजे तक पढ़ता। फिर वहीं के कैफिटेरिया में हल्का लंच ले सेंट कैथरीन्स कॉलेज में मि० हेन के कमरे में जा बैठता, वहाँ छह बजे तक पढ़ता। लौटकर खाना खाता और डिग की किसी लड़की या लड़के के साथ घूमने चला जाता, या कोई व्याख्यान सुनने, या किसी सभा-सोसायटी की बैठक में भाग लेने-केम्ब्रिज में सन्ध्या के कार्यक्रमों की कमी नहीं। कभी-कभी नाटक या सिनेमा देखता। लौटकर रात में देर तक आधुनिक अंग्रेज़ी काव्य के संग्रह पढ़ता, डायरी, आवश्यक पत्रादि लिखता और सो जाता।

कभी-कभी जब मैं हेन के कमरे में बैठा पढ़ता होता, वे आ जाते, पूछते, क्या पढ़ चुके,क्या पढ़ रहे हो? जो मैंने नोट करने को कहा था वह कर रहे हो न?' कभीकभी कोई नयी किताब पढ़ने का सुझाव दे जाते। मेरे काम में उनके इतनी भी रुचि लेने से मुझे बड़ी प्रसन्नता होती। अगर उन्होंने मेरे शोधक को पहचान लिया था तो मैंने भी उनमें अपना सही निर्देशक पा लिया था। बिना सही निर्देशन के शोध-कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं होता। निर्देशन भी एक कला है। केवल बहुत अधीत होने अथवा विचारक और विद्वान होने से यह नहीं आती। बहत अधीत तो झा साहब भी थे, जिनके निर्देशन में मैंने अपना शोध-कार्य आरम्भ किया था, पर उन्होंने मुझे गलत रास्ते पर लगा दिया था। उस रास्ते से तो मुझे लौट आना पड़ा, नयी राह पकड़नी पड़ी। आध्यात्मिक खोज के लिए हमारे यहाँ एक कहावत प्रसिद्ध है-

'पानी पीजे छान,
गुरु कीजे पहचान।'

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