जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
साहित्यिक खोज के लिए भी गुरु की पहचान ज़रूरी है। मैंने गुरु को खोजा न था। खोजने की स्वतन्त्रता शोधक को शायद ही कहीं मिलती हो। ऐसी हालत में निर्देशक से कुछ साहस और विवेक की प्रत्याशा की जा सकती है कि अगर वह देखे कि किसी विषय पर वह अधिकारपूर्वक निर्देशन नहीं दे सकता तो स्वयं हट जाये। मुझे बताया गया, ब्रिटिश युनिवर्सिटियों के सामने ऐसे अवसर आये हैं, जब किसी ने किसी विषय पर शोध करना चाहा, और युनिवर्सिटी अधिकारियों ने उससे कह दिया कि खेद है अमुक विषय पर पथ-प्रदर्शन करने वाला हमारे यहाँ नहीं है, आप किसी दूसरी युनिवर्सिटी में प्रयत्न करें। यह तो मेरा सौभाग्य था कि मि० हेन में मुझे ऐसा विज्ञ और विचक्षण निर्देशक मिल गया था. और उनसे मिलने के पहले दिन से ही मुझे यह विश्वास हो गया था कि उनके आदेशों पर चलने से मैं ठीक दिशा की ओर अग्रसर हूँगा। अभी तो मेरे शोध का विषय ही निर्धारित होना था, और हेन चाहते थे कि उस पर भी मैं अपने प्रयत्न और अपनी सूझ-बूझ से पहुँचूँ। स्वस्थ सहायता इतनी ही होनी चाहिए कि आदमी अपनी सहायता स्वयं करने में समर्थ हो सके।
जैसे-जैसे मैं ईट्स-साहित्य पढ़ता गया-कितनी ही नयी पुस्तकें सामने आयीं, इलाहाबाद में तो उनकी सम्पूर्ण मौलिक रचनाएँ भी उपलब्ध न र्थी-वैसेवैसे मुझे यह स्पष्ट होता गया कि ईट्स की अभिरुचि, उनका कौतूहल, उनकी जिज्ञासा, उनका शोध-स्वाध्याय कितनी विविध और कैसी-कैसी विचित्र दिशाओं में था। भारत के प्रति उनके आकर्षण की चर्चा में पहले कर चुका हूँ, पर जिस भारत के प्रति वे आकर्षित थे, वह न तो ऐतिहासिक भारत था न राजनैतिक; वह था श्रीमद्भागवत्पुराणकार के शब्दों में 'भारतमद्भुतम्'-अद्भुत भारत-भारत का वह अदभत चाहे उसके परा साहित्य में मिले. चाहे उसके दर्शन में, चाहे उसकी दंतकथाओं में, चाहे उसके अंधविश्वासों में। बात यह थी कि ईट्स जिस युग में वयस्क हुए, उसमें तर्क-सम्मत वैज्ञानिक शोधों ने चर्च-सम्पोषित ईसाई धर्म की जड़ें हिला दी थीं-कम-से-कम बुद्धिजीवी वर्ग की आस्था तो उसमें बिल्कुल न रह गयी थी, और ईट्स की सही या गलत धारणा यह थी कि बिना किसी प्रकार की आस्था के उच्चकोटि की कविता नहीं लिखी जा सकती, भले ही उस आस्था की पटरी आधुनिक तार्किकता के साथ बैठती हो या न बैठती हो, बल्कि जो जितनी ही अतार्किक हो, वह उतनी ही कवि के लिए महत्त्वपूर्ण है-इसके लिए ईट्स के अपने तर्क थे जिन्हें दूसरों को मनवाने की कला उन्हें खूब आती थी। इसी धुन में आधुनिक सभ्यता से अछूते ग्रामीण जनों के अंधविश्वासों, उनके बीच प्रचलित लोक-कथा-वार्ताओं में, उनके द्वारा अज्ञात पीढियों से अपनाये गये धर्म-सम्प्रदायों के कर्मकांडों में उनका कौतूहल बढ़ा, पुराने साहित्य, पुरानी सभ्यताओं, पुरानी धर्मसंस्थाओं में जो कुछ भी आश्चर्यजनक, चमत्कारी, रहस्यपूर्ण अथवा गुह्य था, सबकी ओर उनकी जिज्ञासा जागी। उन्होंने यहूदियों के आदि धर्म-ग्रन्थ कब्बाला का अध्ययन किया, प्राचीन यूनान और मिस्त्र के विख्यात और अल्पज्ञात मनीषियों को अवगाहा, जर्मनी के ईसाई रहस्यवादी जैकब बेहमेन-जो पेशे से जूता गाँठने वाले थे, हमारे यहाँ के भक्त रैदास के प्रतिरूप-और स्वीडेन के स्वप्नद्रष्टा-अक्षरशः जाग्रत स्वप्नद्रष्टा-दार्शनिक ईमनुएल स्वीडेनबार्ग के विचारों में डुबकी लगायी, मैडेम ब्लावाट्स्की के थियोसोफिकल आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और उनकी प्रायः सभी कृतियाँ मनोयोग से पढ़ीं, साथ ही उन्होंने हरमीटिक आर्डरों, मध्ययगीन योरोपीय कीमियागरों-ये एक प्रकार के दार्शनिक ही थे, जो अपने को कीमियागरी की शब्दावली में अभिव्यक्त करते थे-रोसीक्रूशन, फ्रीमेसन मजे, मिस्मरेज़म, सिएंस-जहाँ प्रेतात्माएँ बुलाई जाती थीं और जिप्सियों के टैरट कार्ड-एक प्रकार के ताश के पत्ते, जिनसे जिप्सी मनुष्य का भाग्य बताते थे-और तरह-तरह के जादू-टोने में खुलकर रुचि ली, सारी ज़िन्दगी। अपने इस शुगल में ईट्स कितने गम्भीर थे, इसका इससे बड़ा और क्या सबूत होगा कि अपने जीवन के अन्तिम भाग में उन्होंने अपने सारे अतार्किक अध्ययन और अनुभव के आधार पर एक सुसम्बद्ध सिस्टम, दर्शन, सिद्धान्त अथवा 'धर्म' को ही जन्म दिया-अपनी बहुचर्चित और विवादास्पद कृति A Vision (ए विज़न) के द्वारा, जिसकी भूमिका एज़रा पाउण्ड को भेजते हुए उन्होंने लिखा : I send you the introduction of a book which will, when finished, proclaim a new Divinity. (मैं तुम्हें अपनी नयी पुस्तक की भूमिका भेज रहा हूँ जो प्रकाशित होने पर एक नये ही धर्म अथवा अहदनामे की उद्घोषणा करेगी।)
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